इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः ।। 12 ।।

 

 

व्याख्या :-  यज्ञ के द्वारा पुष्ट अथवा सशक्त हुए देवता बिना मांगे ही तुम्हारे सभी इच्छित ( जिसको प्राप्त करने की इच्छा होती है ) भोग तुम्हें प्रदान करते रहेंगे । जो मनुष्य उन देवताओं द्वारा प्रदान किये हुए भोगों को दूसरों को ( देवताओं ) न देकर स्वयं ही उनका भोग करता रहता है, ऐसे मनुष्य को चोर अथवा लुटेरा ही कहा जाता है ।

 

 

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ।। 13 ।।

 

 

व्याख्या :-  यज्ञ से बचे हुए अवशेष ( यज्ञशेष ) को खाने वाले मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं, लेकिन जो केवल अपने ही शरीर का भरण पोषण करने के लिए अन्न पकाते हैं, वे सभी लोग केवल पाप को ही खाते हैं ।

 

 

 

विशेष :-  यज्ञ करने के बाद जो भी पदार्थ बच जाते हैं, उन्हें यज्ञशेष कहते हैं । पूरी सृष्टि का क्रम एक दूसरे को देने व उससे लेने के सिद्धान्त पर ही चलता है, जिसे अंग्रेजी में गिव एंड टेक ( Give and take ) कहा जाता है । जब तक मनुष्य इस सिद्धान्त का पालन करता है, तब तक वह सभी पापों से मुक्त अथवा बचा रहता है । लेकिन जैसे ही वह देने के भाव को छोड़कर केवल लेने का भाव रखता है, वैसे ही वह पाप का भागी अथवा पापी बन जाता है । ऐसा करने से तो सृष्टि का जीवन चक्र ही बाधित हो जाएगा । इसीलिए इस श्लोक में कहा गया है कि व्यक्ति को केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि सभी के लिए सोचना चाहिए । जो व्यक्ति केवल अपना ही भरण पोषण करने की भावना रखते हैं, वे सभी पाप के भागी होते हैं ।

 

 

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ।। 14 ।।

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ।। 15 ।।

 

 

व्याख्या :-  सभी प्राणियों की उत्पत्ति व विकास अन्न से होता है, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि ( वर्षा ) से होती है, वृष्टि की उत्पत्ति यज्ञ से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति कर्म से होती है ।

 

कर्म का ज्ञान वेद से होता है और वेद उस अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि वह सर्वव्यापी परमात्मा सदा यज्ञ में प्रतिष्ठित ( विद्यमान ) रहता है ।

 

 

 

विशेष :-  उपर्युक्त श्लोकों में प्राणी, अन्न, वर्षा, यज्ञ, कर्म, वेद व ब्रह्म की उत्पत्ति के क्रम को बताया गया है । परीक्षा की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण प्रश्न हो सकता है । ऊपर वर्णित किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति का आधार पूछा जा सकता है । अतः इस क्रम का एक बार फिर से यहाँ पर उल्लेख किया जा रहा है ।

प्राणी > अन्न > वर्षा > यज्ञ > कर्म > वेद > परमात्मा या ईश्वर ।

 

इसके अतिरिक्त यह भी पूछा जा सकता है कि ब्रह्म किसमें प्रतिष्ठित अथवा विद्यमान रहता है ? जिसका उत्तर है यज्ञ में ।

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