तीसरा अध्याय ( कर्मयोग )
गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग पर आधारित है । जिसमें श्रीकृष्ण कर्म की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हैं ।
इसमें कुल तैतालीस ( 43 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है । इस अध्याय में अर्जुन के मन में कर्म को लेकर कई प्रकार के द्वन्द्व चल रहे थे ।
जिसके लिए उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा कि आप मुझे यह बताइये कि साम्यबुद्धि व कर्म में से कौन सा श्रेष्ठ है ? तब श्रीकृष्ण कर्म की अनिवार्यता को बताते हुए कहते हैं कि इस संसार में कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो एक पल के लिए भी कर्म को छोड़ दे अथवा एक पल के लिए जो कार्य किये बिना रह सके । इससे कर्म के प्रति हमारी बाध्यता का पता चलता है कि कोई भी चाह कर भी कर्म को नहीं छोड़ सकता । जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं तो तब भी हमारा मन और ज्ञानेन्द्रियाँ कुछ न कुछ कर ही रही होती हैं । अतः जब कोई बिना कर्म किये हुए रह ही नहीं सकता तो क्यों न कुछ किया जाए ।
अब प्रश्न उठता है कि हमें कौन से कर्म करने चाहिए ? इसका उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को सदा वें ही कार्य करने चाहिए जो स्वधर्म से उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार के कर्म कभी भी बन्धन का कारण नहीं बनते । कर्म को यज्ञ की भावना से करने पर भी वह बन्धन का कारण नहीं बनता । इसमें प्राणियों की उत्पत्ति का क्रम बताते हुए कहा गया है कि प्राणियों की उत्पत्ति अन्न से, अन्न की उत्पत्ति वर्षा के जल से, वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ की उत्पत्ति कर्म द्वारा होती है । अतः कर्म ही इन सबका आधार है । कर्म की उपयोगिता को ही बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि लोकसंग्रह अर्थात् लोगों के कल्याण के लिए भी यह कर्म आवश्यक है । इसीलिए तो राजा जनक आदि ने भी कर्म किया था ।
इसके अलावा यहाँ पर श्रीकृष्ण स्वयं का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि हे पार्थ! इन तीनों लोकों में ऐसा कोई भी कार्य शेष नहीं बचा है जो मुझे करना चाहिए और न ही कोई ऐसी वस्तु अथवा पदार्थ है जो मुझे प्राप्त न हुआ हो । लेकिन इसके बावजूद भी मैं कर्म कर रहा हूँ क्योंकि लोग अपने से श्रेष्ठ लोगों के आचरण से सीखते हैं और उनके जैसा ही आचरण करते हैं । यदि मैं कर्म नहीं करूँगा तो तुम सब भी मेरा अनुसरण करते हुए अकर्मण्यता से युक्त हो जाओगे । इसलिए कर्म करना आवश्यक है । इसके साथ ही इस अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य को अपने स्वधर्म के अनुसार ही कर्म करना चाहिए । अपना धर्म ही कल्याणकारी व श्रेष्ठ होता है । परधर्म अर्थात् दूसरे के धर्म को श्रेष्ठ मानकर उसका अनुसरण करना बहुत ही भयानक होता है । इसलिए हमें सदा स्वधर्म का ही पालन करना चाहिए । यही हमारे लिए हितकर होता है ।
अर्जुन उवाच
चेत्कर्मणज्यायसीस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ।। 1 ।।
व्याख्या :- अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है कि हे जनार्दन ! यदि आप कर्म की अपेक्षा बुद्धि ( ज्ञानयोग ) को श्रेष्ठ मानते हो, तो हे केशव ! आप मुझे युद्ध जैसे भयंकर कर्म के लिए क्यों प्रेरित कर रहे हो ?
विशेष :- दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने समबुद्धि की बात कहकर ज्ञानयोग के मार्ग को हितकर बताया था । इसी बात को लेकर अर्जुन यह पूछता है कि जब ज्ञान मार्ग श्रेष्ठ है तो फिर आप मुझे युद्ध जैसे भयानक कर्म में क्यों अग्रसर कर रहे हो ?
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।। 2 ।।
व्याख्या :- आप मुझे मिश्रित ( मिलीजुली ) बातें बोलकर मेरी बुद्धि को भटकाने ( इधर – उधर की बातें बोलकर लक्ष्य से भ्रामित करना ) का काम कर रहे हो । इसलिए आप मुझे एक निश्चित मार्ग का उपदेश दीजिए जिससे मेरा कल्याण हो सके ।
विशेष :- अर्जुन श्रीकृष्ण को भटकाने वाली बात इसलिए बोलता है क्योंकि उसे लगता है कि एक ओर तो श्रीकृष्ण ज्ञानमार्ग को श्रेष्ठ बोल रहे हैं और दूसरी तरफ मुझे युद्ध जैसा भयानक कार्य करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं । इन बातों को सोचकर ही अर्जुन ने यह प्रश्न किया कि आप मुझे एक ऐसा निश्चित मार्ग बता दीजिए जिसका अनुरण करने से मेरा कल्याण हो सके ।
ॐ गुरुदेव!
बहुत बहुत आभार आपका।
Dr sahab nice explain sumbuddi or savedharma karma benefits.