पन्द्रहवां अध्याय ( पुरुषोत्तम योग )
इस अध्याय में कुल बीस ( 20 ) श्लोकों का वर्णन किया गया है ।
जिसमें परमपद के लक्षणों का, जीवन का स्वरूप, आत्मा के ज्ञान व पुरुषोत्तम ज्ञान के स्वरूप की चर्चा की गई है । पहले उस परमपद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सम्मान व ममता से रहित है, जिसने दोषों पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया है, जो सदा स्थिर रहता है और जो सभी द्वन्द्वों से रहित है । वह परमपद का स्थान होता है । जिसे सूर्य, चन्द्रमा, तारे व कोई भी तत्त्व प्रकाशित नहीं कर सकता है ।
इसके बाद पुरुषोत्तम के ज्ञान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इस लोक व्यवहार व वेदों में मैं पुरुषोत्तम नाम से विख्यात हूँ । जो भी भक्त मेरे इस स्वरूप को जानकर मेरा भजन करता है । अन्त में वह मुझे प्राप्त कर लेता है । अन्त में श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि यह पुरुषोत्तम नामक उत्तम से उत्तम ज्ञान है । जिसके विषय में मैंने तुम्हें विस्तार से बताया है । जिसको जानने मात्र से मनुष्य पूर्णतया को प्राप्त हो जाता है ।
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।। 1 ।।
व्याख्या :- जिसका मूल भाग ऊपर की ओर तथा शाखाएँ नीचे की ओर हैं, ऐसा संसार रूपी अश्वत्थ अर्थात् पीपल का पेड़ कभी भी नष्ट नहीं होता है । इस पेड़ के पत्ते वेद हैं और जो इस पेड़ को जानता है, वह पुरुष सभी वेदों को जानने वाला अर्थात् वेदवेत्ता कहलाता है ।
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।। 2 ।।
व्याख्या :- इस संसार रूपी वृक्ष अर्थात् पेड़ की शाखाएँ सत्त्व, रज व तम नामक गुणों से ऊर्जा प्राप्त करके निरन्तर नीचे और ऊपर की तरफ बढ़ रही हैं । इन्हीं शाखाओं से विषयभोगों की नई – नई पत्तियाँ निकली हुई हैं, मनुष्यलोक अर्थात् संसार को कर्मबन्धन में बाँधने वाली ये सभी शाखाएँ नीचे से ऊपर तक जाल की भाँति चारों तरफ फैली हुई हैं ।
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ।। 3 ।।
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।। 4 ।।
व्याख्या :- लेकिन जैसा इस अश्वत्थ ( पीपल ) के पेड़ के विषय में बताया गया है, वैसे इस पेड़ के कुछ भी लक्षण सामान्य जीवन में दिखाई नहीं देते हैं । इस प्रकार न ही तो इस पेड़ का आरम्भ दिखाई दे रहा है और न ही कोई अन्त । अनासक्ति रूपी मजबूत तलवार से गहरी जड़ों वाले इस अश्वत्थ अर्थात् पीपल के पेड़ को जड़ से काट देना चाहिए ।
इसके बाद उस परमपद को ढूंढना चाहिए, जहाँ जाने पर मनुष्य कभी भी इस संसार में वापिस नहीं आता और साथ ही मनुष्य को इस बात का स्मरण करना चाहिए कि जिस परमेश्वर से इस सनातन एवं पुरातन प्रवृत्ति की उत्पत्ति हुई है, मैं उसी आदिपुरुष अर्थात् उसी परमेश्वर की शरण में हूँ ।
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धन्यवाद सर
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