परमपद प्राप्ति
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ।। 5 ।।
व्याख्या :- जो मान व मोह से मुक्त हैं, जिन्होंने सङ्ग रूपी ( आसक्ति ) दोष पर विजय प्राप्त कर ली है, जो सभी कामनाओं से निवृत्त होकर निरन्तर आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिर रहते हैं और जो सुख- दुःख आदि द्वन्द्वों से पूरी तरह से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे ज्ञानी पुरुष ही अविनाशी परमपद को प्राप्त करते हैं ।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ।। 6 ।।
व्याख्या :- जिस अविनाशी पद अथवा स्थान पर पहुँचने के बाद कभी वापिस नहीं लौटना पड़ता अर्थात् जहाँ जाने पर मनुष्य को पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता, उस परमपद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न ही चन्द्रमा और न ही अग्नि, क्योंकि वह अविनाशी परमधाम स्वयं ही प्रकाशमान है । इस प्रकार ऊपर वर्णित लोक ही मेरा परमधाम है ।
श्रीभगवानुवाच
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।। 7 ।।
व्याख्या :- इस मनुष्यलोक में स्थित शरीर में जो सनातन जीव अर्थात् आत्मा है, वह मेरा ही अंश है, जिसमें एक मन सहित छ: इन्द्रियाँ स्थित हैं । प्रकृति में स्थित होने के कारण प्रकृति इनको अपनी ओर आकर्षित करती है ।
विशेष :- यहाँ पर छ: इन्द्रियों में पाँच ज्ञानेन्द्रियों व एक मन की बात कही गई है ।
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।। 8 ।।
व्याख्या :- जिस प्रकार वायु गन्ध ( सुगन्ध और दुर्गन्ध ) को अपने साथ एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है, ठीक उसी प्रकार मृत्यु होने पर शरीर में स्थित आत्मा भी उन इन्द्रियों द्वारा संचित संस्कारों को नए शरीर में ले जाता है ।
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