श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।

अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ।। 9 ।।

 

 

व्याख्या :-  यह जीवात्मा कान, नेत्र, त्वचा, जीभ व नासिका ( पंच ज्ञानेन्द्रियों ) और एक मन का आश्रय ( सहारा ) लेकर स्वामी रूप में सभी विषयों का सेवन करता है अथवा सभी विषय भोगों को भोगता है ।

 

 

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌ ।

विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ।। 10 ।।

 

 

व्याख्या :-  शरीर को छोड़ते हुए ( शरीर का त्याग करते हुए ), शरीर में रुके हुए अथवा स्थिर हुए तथा प्रकृति के गुणों से विषयों को भोगते हुए आत्मा को अज्ञानी मनुष्य नहीं जानते । केवल ज्ञानचक्षु ( ज्ञानी लोग ) ही उसे जान पाते हैं ।

 

 

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्‌ ।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ।। 11 ।।

 

 

व्याख्या :-  योगी पुरुष ही प्रयत्न द्वारा अपने हृदय प्रदेश में स्थित आत्मा को जान पाते हैं, लेकिन जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, वह मनुष्य प्रयत्न करने पर भी आत्मा को नहीं जान पाते हैं ।

 

 

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌ ।

यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌ ।। 12 ।।

 

 

व्याख्या :-  सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाले सूर्य में स्थित तेज को, चन्द्रमा में स्थित तेज को व अग्नि में स्थित तेज को तुम मेरा ही तेज समझो ।

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