चौदहवां अध्याय ( गुणत्रय विभागयोग )

इस चौदहवें अध्याय में मुख्य रूप से गुणों के विभागों ( सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण ) की चर्चा की गई है ।

इसमें कुल सत्ताईस ( 27 ) श्लोक कहे गए हैं । गुणों के विषय में कहा गया है कि पूरी प्रकृति इन तीन गुणों से ही निर्मित है । इन तीन गुणों को सत्त्वगुण, रजोगुण व तमोगुण कहा जाता है । प्रत्येक गुण का अपना अलग स्वभाव होता है ।

निर्मलता के कारण सत्त्वगुण बढ़ता है, राग के फलस्वरूप रजोगुण की उत्पत्ति होती है और अज्ञान से तमोगुण विकसित होता है । मनुष्य सत्त्वगुण से सुख में, रजोगुण से कर्म में व तमोगुण से आलस्य व प्रमाद में प्रवृत्त होता है । हमारे शरीर में एक समय में एक ही गुण की प्रधानता होती है । तथा उस समय बाकी के दो गुण गौण अवस्था में रहते हैं । जैसे जब सत्त्वगुण प्रभावी होता है तो रजोगुण व तमोगुण गौण होते हैं । जब रजोगुण प्रभावी होता है तब सत्त्वगुण व तमोगुण गौण होते हैं और जब तमोगुण का प्रभाव बढ़ता है तब सत्त्वगुण व रजोगुण गौण अवस्था में रहते हैं ।

मृत्यु के समय मनुष्य में जिस गुण की प्रबलता होती है । उसे अगला जन्म उसी आधार पर मिलता है । यदि कोई व्यक्ति सत्त्वगुण की प्रधानता में प्राण त्यागता है तो उसे स्वर्ग लोक की प्राप्ति होती है । जो मनुष्य रजोगुण में प्राण छोड़ता है उसे वापिस मनुष्य योनि प्राप्त होती है । इसी प्रकार जब व्यक्ति की तमोगुण की प्रधानता में मृत्यु होती है तब वह पशु- पक्षी आदि योनि में जन्म लेता है ।

अब अर्जुन पूछता है कि हे कृष्ण ! जीव की मुक्त अवस्था कब होती है । इसके उत्तर में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब मनुष्य पूरी तरह से उदासीन भाव को प्राप्त कर लेता है, किसी प्रकार की कोई इच्छा नहीं रखता, सब अवस्थाओं में अपने आप को समभाव से युक्त कर लेता है, जिसके लिए मित्र व शत्रु सब एक समान हो गए हैं । वही साधक इन तीनों गुणों से ऊपर उठता है । उसी को मुक्ति अर्थात् ब्रह्मभाव प्राप्त होता है । जैसे ही मनुष्य इन गुणों से मुक्त हो जाता है वैसे ही वह मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।

 

 

 

श्रीभगवानुवाच

 

परम ज्ञान

 

परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्‌ ।

यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ।। 1 ।।

 

 

व्याख्या :-  भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं – अब मैं सभी ज्ञानों में उत्तम ज्ञान का वर्णन करूँगा, जिसे जानकर सभी मुनिजन मृत्यु रूपी संसार- सागर से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गये ।

 

 

जन्म- मरण मुक्ति

 

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।। 2 ।।

 

 

व्याख्या :-  इस उत्तम ज्ञान का आश्रय ( सहारा ) लेकर जो पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त हो गए हैं, वे न ही तो सृष्टि के आदिकाल में जन्म लेते हैं और न ही सृष्टि के प्रलयकाल में किसी प्रकार से व्याकुल ( उद्विग्न अथवा परेशान ) होते हैं ।

 

 

 

विशेष :-  इस उत्तम ज्ञान के प्रभाव से ज्ञानीलोग पुनर्जन्म के बन्धन से पूरी तरह मुक्त हो जाते हैं ।

 

 

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।

सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।। 3 ।।

 

 

व्याख्या :-  हे भारत ! यह प्रकृति मेरी योनि है, जिसमें मैं गर्भ की स्थापना करता हूँ और इसी क्रिया से समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं अर्थात् इसी प्रक्रिया से सृष्टि का निर्माण होता है ।

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