जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्यं स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात् ।। 9 ।।
शब्दार्थ :- जाति ( विशेष समूह ) देश ( स्थान ) काल ( समय के ) व्यहितानाम् ( व्यवधान या अन्तर होने पर ) अपि ( भी ) स्मृति ( याददाश्त और ) संस्कारयो: ( कर्म संस्कारों के ) एकरूपत्वात् ( एक समान या एक ही विषय होने से ) आनन्तर्यम् ( कोई व्यवधान नहीं होता )
सूत्रार्थ :- किसी विशेष जाति समूह, स्थान, व समय में अन्तर होने पर भी याददाश्त और कर्म संस्कारों के एक समान विषय होने से उनमें कोई अन्तर उत्पन्न नहीं होता ।
व्याख्या :- इस सूत्र में स्मृति व संस्कारों की एकरूपता के परिणाम को बताया गया है ।
कोई भी जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार ही अगला जन्म लेती है । वह जन्म कर्मों की भिन्नता से उसका जन्म भी अलग- अलग प्रकार के जाति समूहों में होता है । जैसे- अच्छे कर्म करने पर जीव को उच्च कुल में जन्म मिलता है । साधारण कर्म करने पर उसका जन्म साधारण घर में होता है । वहीं अशुभ अर्थात बुरे कर्म करने पर उसे पशु- पक्षियों की योनि में जन्म मिलता है ।
इस प्रकार अलग- अलग जाति समूहों में जन्म लेने पर भी उसकी वैसी ही याददाश्त व कर्म संस्कार बनते रहते हैं । जो बीज अथवा सूक्ष्म रूप में उसके साथ ही अलगे जन्म में भी साथ चले जाते हैं ।
जैसे- कोई जीवात्मा आज पशु योनि में जन्म लेता है तो उसमें वैसे ही संस्कार पहले से ही मौजूद होते हैं । क्योंकि वह पहले कभी न कभी उस योनि में जन्म ले चुका होता है । जिस प्रकार गाय का बछड़ा पैदा होते ही सबसे पहले गाय का दूध पीने के लिए गाय के स्तनों की ओर चल पड़ता है । क्योंकि उसके अन्दर पूर्व जन्म की स्मृति व संस्कारों के सूक्ष्म रूप से मौजूद होने के कारण उसे पता है कि उसे वहाँ से दूध मिलेगा ।
इसी प्रकार कर्म संस्कारों के परिणाम से जीवात्मा अलग- अलग स्थानों में जन्म लेती रहती है । जैसे- कभी जीवात्मा का जन्म भारत देश में हुआ है । तो कभी यूरोप के किसी देश में । इस प्रकार जन्म स्थान में भिन्नता होने पर भी उसके अलग- अलग स्थानों की स्मृति व संस्कार उसके साथ सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते हैं ।
इसके अतिरिक्त जीवात्मा अपने कर्म संस्कारों के परिणाम से अलग- अलग समय में जन्म लेती है । लेकिन पूर्व जन्म की स्मृति वर्षों के अन्तराल के बाद भी बनी रहती है ।
इस प्रकार जीव के अलग- अलग जाति, देश व समय पर जन्म लेने में बहुत सारा अन्तर होने पर भी याददाश्त व कर्म संस्कारों की एकरूपता होने से उनमें किसी प्रकार का अन्तर पैदा नहीं होता । जन्मों जन्म की स्मृति व संस्कारों की एकरूपता के आधार पर जाति समूह, स्थान व समय आदि का अन्तर भी उसमें किसी तरह का कोई व्यवधान नहीं डाल पाता ।
अतः साधक को योग साधना के बल पर अशुभ अर्थात बुरे संस्कारों को नष्ट करके केवल निष्काम कर्म करने चाहिए । ताकि उसका चित्त सभी कर्म संस्कारों से मुक्त हो सके । इस प्रकार कर्म संस्कारों के निर्बल होने से ही साधक को कैवल्य की प्राप्ति होती है ।
??प्रणाम आचार्य जी! सुन्दर वण॔न! धन्यवाद ?
Nice example guru ji.
Pranaam Sir! ?? A real eye opener for all of us on the path of kaivalya. Thank you sir
Dhanyawad.
Please complit the rest of surta of kaivalya pada THANKS