कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ।। 7 ।।

 

शब्दार्थ :- योगिन: ( योगी के ) कर्म ( कार्य ) अशुक्ल ( पुण्य से रहित व ) अकृष्णम् ( पाप से रहित होते हैं ) इतरेषाम् ( अन्यों अर्थात दूसरों के ) त्रिविधम् ( तीन प्रकार के होते हैं )

 

 

सूत्रार्थ :- योगी व्यक्तियों के कर्म ( कार्य ) पाप व पुण्य से रहित अर्थात निष्काम कर्म होते हैं । योगियों से दूसरे व्यक्तियों के अलग से तीन प्रकार के कार्य होते हैं ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में योगियों के कार्यों को पाप व पुण्य से रहित बताया गया है । व सामान्य व्यक्तियों के कर्मों के प्रकारों की भी चर्चा की गई है ।

 

योगसूत्र के इस सूत्र में चार प्रकार के कर्मों की चर्चा की गई है । जिनका वर्णन इस प्रकार है :-

  1. शुक्ल कर्म
  2. कृष्ण कर्म
  3. शुक्ल-कृष्ण कर्म
  4. अशुक्ल- अकृष्ण कर्म ।

 

  1. शुक्ल कर्म :- शुक्ल कर्म उन कार्यों को कहते हैं जिनसे पुण्य फल की प्राप्ति होती है । इनको तप, स्वाध्याय और ध्यान करने वाले व्यक्तियों के कर्म कहा जाता है । अर्थात जो व्यक्ति तप, स्वाध्याय व ध्यान करते हैं । वही शुक्ल कर्म करते हैं । इनके फल सुख, आनन्द व स्वर्ग आदि की प्राप्ति करवाने वाले होते हैं ।
  2. कृष्ण कर्म :- कृष्ण कर्म सभी वह कार्य होते हैं जिनका परिणाम अर्थात फल पाप होता है । इनको दुष्टों अर्थात बुरे व्यक्तियों के कार्य कहा जाता है । जैसे- हिंसा, झूठ बोलना, चोरी करना व व्यभिचार ( बलात्कार या दुष्कर्म ) आदि । इन सभी कर्मों से दुःख, तकलीफ व नरक आदि की प्राप्ति होती है ।
  3. शुक्ल- कृष्ण कर्म :- शुक्ल व कृष्ण कर्म पाप व पुण्य से मिश्रित कार्यों को कहते हैं । इनको अच्छे व बुरे दोनों प्रकार के व्यक्तियों के कार्य कहा जाता है । जिसमें कुछ कार्यों के करने से पुण्य की प्राप्ति होती है और कुछ कार्यों के करने से पाप की प्राप्ति होती है । इन कार्यों को मिश्रित अर्थात मिलेजुले कार्य कहा जाता है । इनके अन्तर्गत व्यक्ति कभी पुण्य कार्यों में प्रवृत्त होता है तो कभी पाप कार्यों में । इन कर्मों के फल भी मिश्रित ही होते हैं ।
  4. अशुक्ल- अकृष्ण कर्म :- अशुक्ल का अर्थ है पुण्य से रहित और अकृष्ण का अर्थ है पाप से रहित कार्य । अर्थात वह कार्य जिनके करने से न तो पुण्य मिलता है और न ही पाप मिलता है । वह सभी कार्य अशुक्ल- अकृष्ण कर्म कहलाते हैं । इन कार्यों को करने के लिए केवल सन्यासियों, क्लेश रहित व साधना की चरम अवस्था में पहुँचे हुए साधकों को ही योग्य माना गया है । इन कर्मों को ही निष्काम कर्म कहा जाता है । यही योगी के द्वारा किए जाने वाले कर्म हैं ।

 

 

इस सूत्र में चार प्रकार के कर्मों की चर्चा की गई है । जिनमें से पहले वाले तीन ( शुक्ल कर्म, कृष्ण कर्म व शुक्ल- कृष्ण कर्म ) प्रकार के कार्य योगियों से दूसरे अर्थात अन्य लोगों द्वारा किए जाने वाले कर्म हैं ।

 

चौथे प्रकार के जो कार्य होते हैं वहीं कार्य योगियों द्वारा करने योग्य कर्म हैं । इन कर्मों को ही निष्काम कर्म कहा जाता है । निष्काम कर्म वह कार्य होते हैं जिनके करने से न तो पुण्य मिलता है और न ही पाप मिलता है । यह पूरी तरह से पाप व पुण्य से रहित होते हैं । इन कर्मों में योगी में न तो कोई कर्म संस्कार की वासना रहती है और न ही उससे मिलने वाले फल की लालसा ।

 

इस प्रकार योगी सभी प्रकार के पाप व पुण्य से रहित कर्म अर्थात निष्काम कर्म करता है ।

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  1. Pranaam Sir! ??well said. We all need to know about the karma that we are performing, as it will help eradicate the bad habits in us.

  2. प्रणाम आचार्य जी! योगीयो के कम॔ की बहुत ही सुंदर व्याख्या की गई है, धन्यवाद! ओम!

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