तत्र ध्यानजमनाशयम् ।। 6 ।।

 

शब्दार्थ :- तत्र ( उनमें से अर्थात पूर्व में वर्णित चित्तों में ) ध्यानजम् ( ध्यान से जनित अर्थात उत्पन्न चित्त ) अनाशयम् ( आश्रय से रहित अर्थात कर्म संस्कार से रहित होता है )

 

सूत्रार्थ :- पहले के सूत्रों में कहे गए चित्तों में से ध्यान से उत्पन्न चित्त ही सभी आश्रयों अर्थात कर्म संस्कारों से रहित होता है ।

  

व्याख्या :- इस सूत्र में ध्यान से उत्पन्न चित्त को कर्म संस्कारों से रहित बताया है ।

 

कैवल्यपाद के प्रारम्भ में सूत्रकार ने चित्त को पाँच प्रकार की सिद्धियों ( जन्म, औषधि, मन्त्र, जप व समाधि ) से निर्मित बताया गया है ।

 

इनमें से जिस चित्त का निर्माण समाधि अर्थात ध्यान के द्वारा होता है । वह चित्त की श्रेष्ठ अवस्था होती है । ध्यान द्वारा निर्मित चित्त सभी प्रकार के आश्रयों अर्थात कर्म के संस्कारों से रहित होता है ।

इसके अतिरिक्त बाकी चार अवस्थाओं वाले चित्त में वासना अथवा कर्म के संस्कार बीज रूप में विद्यमान रहते हैं । जिन्हें अपने अनुरूप स्थिति ( माहौल ) मिलने से वह पुनः जागृत हो जाते हैं ।

 

लेकिन ध्यान से निर्मित चित्त इन सभी राग व द्वेष को उत्पन्न करने वाले संस्कारों से सर्वथा रहित होता है । इस अवस्था में उसके अन्दर छुपे वासना या कर्म संस्कार के बीज दग्धभाव ( जले हुए बीज की भाँति ) को प्राप्त हो जाते हैं । जिस प्रकार जला हुआ बीज कभी भी अंकुरित  नहीं हो सकता । ठीक उसी प्रकार ध्यान से निर्मित चित्त में कभी भी क्लेशों की उत्पत्ति नहीं हो सकती ।

 

इस प्रकार का चित्त ही कैवल्य प्राप्त करने के योग्य होता है । अर्थात जब योगी का चित्त ध्यान से निर्मित हो जाता है । तब वह योगी कैवल्य प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है । चित्त की बाकी अवस्थाओं में कर्म संस्कारों के शेष ( बचे ) रहने से वह कैवल्य प्राप्त करने के योग्य नहीं होते ।

 

अतः ध्यान से जनित चित्त ही श्रेष्ठ होता है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    बहुत सुन्दर व्याख्या ।
    आपका हृदय से आभार।

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