प्रवृत्तिभेदे प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषाम् ।। 5 ।।

 

शब्दार्थ :- प्रवृत्तिभेदे ( चित्त को अलग- अलग विषयों या व्यापारों के आधार पर ) अनेकेषाम् ( विभिन्न चित्त व्यापारों का )   प्रयोजकम् ( संचालन अथवा चलाने वाला ) चित्तम् ( वह चित्त ) एकम् ( एक ही है )

 

 

सूत्रार्थ :- चित्त को विभिन्न विषयों या व्यापारों में लगाने या चलाने वाला वह चित्त मुख्य रूप से एक ही प्रकार का है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त के विभिन्न स्वरूपों का आधार एक ही चित्त को माना गया है ।

 

पिछले सूत्र में चित्त के जिन विभिन्न स्तरों की बात कही गई थी । उन सभी प्रकारों का आधार स्तम्भ एक ही चित्त को माना गया है ।

 

जिस प्रकार हम सभी अपने जीवन के सभी निर्णय ( फैसले ) बुद्धि द्वारा लेते हैं । उनमें से कुछ निर्णय हमारे लिए लाभदायक होते हैं और कुछ हानिकारक भी होते हैं । लेकिन वह सभी निर्णय लेने वाली बुद्धि तो एक ही होती है । अलग- अलग प्रकार की नहीं । जिस प्रकार अलग- अलग प्रकार के निर्णय लेने वाली वह बुद्धि मुख्य रूप से एक ही प्रकार की होती है । ठीक इसी प्रकार अलग- अलग विषयों या व्यापारों में प्रवृत्त होने वाले चित्त को चलाने वाला चित्त भी एक ही है । यह सभी विषय या व्यापार एक ही चित्त के अधीन होते हैं ।

 

इसको हम निम्न उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं :-

 

जिस प्रकार हमारी बुद्धि अलग- अलग परिस्थितियों में अलग- अलग निर्णय लेती है । जिसका मुख्य कारण सत्त्व, रज व तम नामक गुण होते हैं । जब हमारी बुद्धि में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है तो वह सही निर्णय लेती है । लेकिन यदि बुद्धि रजोगुणी है तो वह सही व गलत दोनों ही प्रकार के निर्णय ले सकती है । और यदि बुद्धि में तमोगुण प्रभावी हो तो वह किसी भी प्रकार का निर्णय लेने में समर्थ नहीं होती ।

 

ठीक इसी प्रकार हमारा चित्त भी सत्त्व, रज व तम नामक गुणों से प्रभावित होता है । जब चित्त में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है तो उसमें एकाग्रता आती है । लेकिन यदि उसमें रजोगुण प्रभावी है तो वह बहुत प्रकार के विषयों में प्रवृत्त होता है । और यदि उसमें तमोगुण का प्रभाव ज्यादा होता है तो वह किसी भी प्रकार के कार्य करने में समर्थ नहीं हो पाता । इसे चित्त की मूढ़ अवस्था कहा जाता है ।

 

इस प्रकार चित्त का विभिन्न अवस्थाओं वाला होने पर भी उन सभी का संचालन करने वाला चित्त मुख्य रूप से एक ही होता है । अहंकार द्वारा निर्मित चित्त त्रिगुणात्मक ( सत्त्व, रज व तम से युक्त ) होता है । किसी भी एक गुण के बढ़ने से उसकी प्रवृत्ति में भेद होना उसका स्वभाव होता है । लेकिन वह चित्त मूल रूप से एक ही होता है ।

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  1. ??प्रणाम आचार्य जी! इस सूत्र मे आपने चित्त के स्वरूप को बहुत ही भलीभांति बताया है ।बहुत सुन्दर! धन्यवाद! ओम! ?

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