निर्माणचित्तान्यस्मितामात्रात्  ।। 4 ।।

 

 

शब्दार्थ :-  चित्तानि ( चित्तों की )  निर्माण ( उत्पत्ति ) अस्मितामात्रात् ( अहंकार नामक तत्त्व से होती है )

 

 

सूत्रार्थ :- चित्तों की उत्त्पत्ति का कारण अस्मिता अर्थात अहंकार नामक तत्त्व होता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्तों के उपादान अर्थात उत्पत्ति कारण को बताया गया है ।

यहाँ पर चित्त के अनेक रूपों को बनाने की बात कही गई है । जिस प्रकार प्रकृति के कुछ उपादान कारणों की वजह से हमारे शरीर का निर्माण या उत्पत्ति होती है । उसी प्रकार चित्त की उत्पत्ति का कारण अस्मिता अर्थात अहंकार नामक उपादान कारण होता है ।

 

प्रकृति के सत्त्व, रज व तम नामक तीन गुणों से महत्तत्व अर्थात बुद्धि का निर्माण होता है । महतत्त्व से अस्मिता अर्थात अहंकार का निर्माण होता है । फिर इस अहंकार नामक तत्त्व से चित्त का निर्माण होता है । सांख्य दर्शन में अहंकार से मन की उत्पत्ति मानी जाती है । लेकिन यहाँ पर उसे चित्त कहकर संबोधित किया गया है ।

 

यहाँ पर अनेक चित्तों के निर्माण की बात को हम दो अर्थों में देख सकते हैं । एक तो यह कि योगी एक से ज्यादा चित्तों का निर्माण कर ले । और दूसरा यह है कि योगी अपने चित्त को विभिन्न ( अलग- अलग ) स्तर का बना लेता है । इन दोनों में से पहले वाली बात कुछ न्याय संगत नहीं लगती कि योगी बहुत सारे चित्त बना सकता है । लेकिन दूसरी बात में प्रमाणिकता दिखती है । क्योंकि योगी अपने चित्त को योग साधना के बल से किसी भी स्तर या कई स्तरों का बना सकता है ।

 

जिसे हम कह सकते हैं कि योगी विभिन्न चित्तों वाला है । विभिन्न चित्त का सही व सार्थक अर्थ यही लगता है कि चित्त को कई स्तर का बनाया जा सकता है । न कि विभिन्न चित्तों का निर्माण किया जा सकता है ।

 

इस प्रकार योगी चित्त को अलग- अलग विषयों में प्रवृत्त करने में समर्थ हो जाता है । लेकिन उन सभी विषयों में प्रवृत्त होने वाला चित्त मुख्य रूप से एक ही होता है । विभिन्न प्रकार का नहीं । इस बात का प्रमाण अगले सूत्र में भी दिया गया है ।

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  1. ??प्रणाम आचार्य जी! सुन्दर सूत्र! उत्तम वण॔न! धन्यवाद! ओम ?

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