प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेकख्यातेर्धर्ममेघ: समाधि: ।। 29 ।।

 

 

शब्दार्थ :- प्रसंख्याने ( बुद्धि व आत्मा की भिन्नता का ज्ञान अर्थात विवेकख्याति के प्राप्त होने पर ) अपि ( भी ) अकुसीदस्य ( सिद्धियों या विभूतियों में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है ) सर्वथा ( पूरी तरह से ) विवेकख्याते: ( विवेकख्याति के प्राप्त होने पर ) धर्ममेघ: ( धर्ममेघ नामक ) समाधि: ( समाधि की प्राप्ति होती है )

 

 

सूत्रार्थ :- योगी को विवेकख्याति प्राप्त हो जाने पर भी जब उसका सिद्धियों या विभूतियों में राग नहीं रहता । तब पूरी तरह से दृढ़ अवस्था वाली विवेकख्याति से उस योगी को धर्ममेघ नामक समाधि की प्राप्ति होती है ।

 

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में धर्ममेघ नामक समाधि के लक्षण को बताया गया है ।

 

जब योगी का विवेकख्याति से प्राप्त सिद्धियों से भी किसी प्रकार का राग नहीं रहता । तब योगी सभी प्रकार से विवेकख्याति को ही प्राप्त होता रहता है । इस अवस्था में योगी अनेक सिद्धियों का स्वामी हो जाता है । लेकिन फिर भी उसकी उन सिद्धियों में किसी तरह की कोई आसक्ति नहीं होती ।

 

इसका कारण यह है कि योगी के अन्दर जो व्युत्थान संस्कार ( सांसारिक या भौतिक द्वन्द्व ) समूल रूप से नष्ट हो जाते हैं । जैसे जला हुआ बीज कभी भी अँकुरित नहीं हो सकता । वैसे ही विवेकख्याति के उत्पन्न होने से योगी के सभी संस्कार अथवा वासनाएँ भी जले हुए बीज की भाँति कभी भी अँकुरित नहीं होते । इस अवस्था में योगी को इस विवेकख्याति में भी दोष दिखाई देने लगता है । क्योंकि इस विवेकख्याति की अवस्था में योगी में सत्त्वगुण की विद्यमानता रहती है । और जब तक इन त्रिगुणों में से एक भी गुण विद्यमान रहेगा । तब तक सभी क्लेश समूल रूप से नष्ट नहीं हो सकते । इसलिए योगी को इस विवेकख्याति से भी परवैराग्य हो जाता है । विवेकख्याति से परवैराग्य होने पर उस सत्त्वगुण का भी अभाव हो जाता है ।

 

इस स्थिति में योगी के अन्दर किसी भी प्रकार के सांसारिक फल या भोग की इच्छा शेष नहीं बचती । इसे ही धर्ममेघ नामक समाधि कहते हैं । जिसके अखण्ड ज्ञान का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है । इसलिए इस धर्ममेघ समाधि को सम्प्रज्ञात समाधि की सर्वोच्च अवस्था कहा जाता है । जिससे साधक के सभी अविद्या आदि क्लेश पूरी तरह से समाप्त हो जाते हैं ।

 

इसे भाष्यकार विज्ञानभिक्षु ने सम्प्रज्ञात समाधि की पराकाष्ठा कहा है । वैसे सामान्य तौर पर सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि का ही स्थान आता है । लेकिन यहाँ पर किसी भी भाष्यकार ने असम्प्रज्ञात समाधि का उल्लेख नहीं किया है । अतः यहाँ पर धर्ममेघ नामक समाधि को ही समाधि की सर्वोच्च अवस्था माना गया है ।

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