हानमेषां क्लेशवदुक्तम् ।। 28 ।।
शब्दार्थ :- एषाम् ( इन अर्थात इन पूर्व जन्म के संस्कारों का ) हानम् ( नाश ) क्लेशवत् ( क्लेशों की तरह ही ) उक्तम् ( होना कहा गया है )
सूत्रार्थ :- इन सभी पूर्व जन्म के संस्कारों का नाश भी क्लेशों की तरह ही होगा ऐसा कहा गया है । अर्थात जिस प्रकार क्लेशों का नाश क्रिया योग द्वारा किया जाता है । ठीक उसी प्रकार इन पूर्व जन्म के संस्कारों का भी नाश होता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में पूर्व जन्म के संस्कारों का विनाश क्लेशों की तरह ही क्रिया योग द्वारा होता है । ऐसा कहा गया है ।
जिस प्रकार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश नामक पाँचों क्लेशों का नाश क्रिया योग ( तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान ) द्वारा किया जाता है । ठीक उसी प्रकार इन पूर्व जन्म से जनित संस्कारों या वासनाओं का नाश भी क्रिया योग द्वारा किया जाता है । ऐसा कथन सूत्रकार कहते हैं ।
अविद्या आदि पंच क्लेशों का वर्णन योगसूत्र के दूसरे पाद अर्थात साधनपाद में किया गया है । जिसमें अविद्या से उत्पन्न सभी पंच क्लेशों को निर्बल करने या उनका नाश करने के लिए क्रिया योग का उपदेश किया गया है । क्रिया योग के अभ्यास से योगी इन सभी क्लेशों को निर्बल कर देता है । जिससे इन क्लेशों द्वारा साधना में बाधा उत्पन्न करने का सामर्थ्य नहीं बचता है ।
इसी प्रकार इन पूर्व जन्म की वासनाओं या संस्कारों का भी क्रिया योग ( तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान ) द्वारा नाश कर दिया जाता है । जिससे वह सभी संस्कार दग्धबीज भाव को प्राप्त हो जाते हैं । दग्धबीज का अर्थ है जिस बीज को अग्नि में जला दिया जाता है । उस बीज में जीवन भर कभी भी अंकुर नहीं आ सकता । अर्थात वह बीज पूरी तरह से खत्म हो जाता है । उसी प्रकार क्रिया योग से योगी के पूर्व जन्म के संस्कार भी दग्धबीज भाव को प्राप्त हो जाते हैं । संस्कार अथवा वासनाओं के दग्धबीज होने से योगी के विवेक ज्ञान में किसी प्रकार का कोई अन्तर पैदा नहीं होता ।
Thanku sir??
ॐ गुरुदेव*
बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है आपने ।
आपको हृदय से आभार।