तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्तराणि संस्कारेभ्य: ।। 27 ।।

 

शब्दार्थ :- तत् ( उस विवेक ज्ञान के ) छिद्रेषु ( छिद्रों अथवा उसके बीच के अन्तर से ) संस्कारेभ्य: ( पूर्व जनित संस्कारों के कारण ) प्रत्ययान्तराणि ( विवेक ज्ञान के अलावा दूसरे पदार्थों का भी ज्ञान होता रहता है )

 

 

सूत्रार्थ :- पूर्व जन्म के संस्कारों से उस विवेक ज्ञान के बीच में विवेक जनित ज्ञान के अतिरिक्त अन्य पदार्थों का ज्ञान भी आता रहता है ।

 

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में बताया गया है कि पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण योगी को विवेक ज्ञान के बीच- बीच में अन्य सांसारिक ज्ञान की भी प्राप्ति होती रहती है ।

 

योगी को विवेक ज्ञान की प्राप्ति होने पर भी पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण उसके चित्त में दूसरे प्रकार के ज्ञान का आगमन हो जाता है । जिससे उसे पुनः इस बात का आभास होने लगता है कि यह मेरा है, मैं उसे जानता हूँ या उसे नहीं जानता इत्यादि । यह सभी पूर्व जन्म के संस्कारों का परिणाम होता है । मनुष्य के चित्त में अनेक जन्म के संस्कार व वासनाएँ मौजूद होती हैं । जो किसी कारण से दग्ध बीज नहीं हो पाई । वह संस्कार या वासनाएँ साधना की स्थिलता अथवा वैराग्य की कमी से पुनः जीवित हो उठते हैं ।

 

उन्हीं संस्कारों से साधक को विवेक ज्ञान के अलावा अन्य सांसारिक पदार्थों का ज्ञान होता रहता है । जो समाधि में बाधा उत्पन्न करने का काम करता है । जब तक योगी के संस्कार या वासनाएँ पूरी तरह से दग्धबीज भाव को प्राप्त नहीं हो जाते । तब तक उसे इस प्रकार का ज्ञान बाधित करता रहता है । इसके समाधान के लिए योगी को उच्चे विवेक और वैराग्य का पालन लम्बे समय तक, निरन्तर व श्रद्धा भाव से करना चाहिए । इस प्रकार साधक का अभ्यास दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है ।

 

योगी को साधना के इस अन्तिम चरण में और भी ज्यादा सतर्कता का पालन करना चाहिए । क्योंकि जैसे ही हम समाधि के करीब पहुँचते हैं । वैसे ही हमारे चित्त में संस्कार रूप में बची हुई वासना प्रबल हो उठती है । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार दीपक बुझने से ठीक पहले पूरी ताकत अथवा रोशनी के साथ जलता है । उसके बाद वह अपने आप शान्त हो जाता है । इसी प्रकार जब साधना के अन्तिम चरण में किसी भी प्रकार की वासना या संस्कार परेशान करने लगे । तो योगी साधक को बड़ी कुशलता से उसका समाधान करना चाहिए । उसके लिए साधक का ऊँचा विवेक और वैराग्य काम आता है ।

 

जिस प्रकार नाव में छेद होने पर नाविक अपनी सतर्कता से नाव के छेद को भरकर पानी को आने से रोक देता है । और नाव को डूबने से बचा लेता है ।  ठीक उसी प्रकार साधना के दौरान योगी द्वारा बरती गई सावधानी उसे समाधि तक बिना किसी परेशानी के पहुँचा देती है ।

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  1. ?प्रणाम आचार्य जी! सूत्र बहुत ही ज्ञानवर्धक है! इतना सुंदर ज्ञान हमे देने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुरु देव जी! ओम! ??

  2. शत शत प्रणाम आचार्यजी. खोया हुआ ज्ञान वापिस डी ताकद से आपने समझाया है.

    1. शत शत प्रणाम आचार्यजी. खोया हुआ ज्ञान वापिस बडी ताकद से आपने समझाया है. पहले जनम के संस्कार बहुत कडे होते हैं.

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