तदसंख्येयवासनाभिश्चित्रमपि परार्थं  संहत्यकारित्वात् ।। 24 ।।

 

शब्दार्थ :- तद् ( वह अर्थात वह चित्त ) असंख्येय ( अनगिनत या बहुत सारी संख्या में ) वासनाभि ( वासनाओं से ) चित्रम् ( चित्रित या युक्त होते हुए ) अपि ( भी ) परार्थं ( दूसरों अर्थात आत्मा या पुरुष के लिए होता है ) संहत्यकारित्वात् ( सभी के साथ मिलकर काम करने के स्वभाव के कारण )

 

 

सूत्रार्थ :- वह चित्त अनगिनत वासनाओं से युक्त होते हुए भी दूसरों के लिए अर्थात आत्मा के लिए कार्य करता है । अपने मिलजुलकर कार्य करने वाले स्वभाव के कारण ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त को आत्मा के लिए कार्य करने वाला बताया गया है ।

 

यहाँ पर चित्त को दूसरों के लिए कार्य करने वाला बताने के पीछे एक कारण यह भी है कि जो व्यक्ति चित्त को ही सब कुछ मानते हैं । वह इस बात को अच्छी तरह से समझ ले कि जो जड़ पदार्थ होते हैं । वो स्वयं के लिए कुछ भी नहीं करते हैं । उनकी उत्पत्ति तो सदैव दूसरों के लिए ही कार्य करने के लिए होती है ।

 

चित्त का निर्माण भी सत्त्व, रज व तम नामक गुणों से हुआ है । यह तीनों ही जड़ पदार्थ हैं । इनका कोई भी कार्य स्वयं के लिए नहीं होता । बल्कि इनका प्रयोजन ही परार्थ अर्थात दूसरों के लिए होता है । इसको हम एक उदाहरण से अच्छी तरह से समझ सकते हैं । जैसे- हम भवन का निर्माण करते हैं तो उसमें ईंटे, सीमेंट, पत्थर, लोहा, लकड़ी व पानी आदि का प्रयोग करते हैं । इन सभी को मिलाकर एक सुन्दर भवन का निर्माण किया जाता है । अब यहाँ पर प्रश्न उठता है कि क्या उस भवन का निर्माण पत्थर, लकड़ी या लोहे के लिए किया गया है ? निश्चित रूप से आपका उत्तर नहीं में ही होगा । क्योंकि भवन का निर्माण हम अपने रहने के लिए करते हैं । ठीक इसी प्रकार बहुत सारी कम्पनियाँ गाड़ी ( कर ) बनाने का काम करती हैं । क्या वह गाड़ियों का निर्माण टायर, सीट, डीजल या सड़क के लिए करती हैं ? इसका उत्तर भी नहीं ही होगा । क्योंकि वह गाड़ियों का निर्माण हमारी सुविधा के लिए करती हैं ।

 

जिस प्रकार किसी भवन या गाड़ियों का निर्माण उनके स्वयं के लिए नहीं किया जाता । क्योंकि वह भवन या गाड़ी जड़ पदार्थ होने के कारण अपना उपयोग अपने लिए नहीं कर सकते । ठीक उसी प्रकार सत्त्व, रज व तम नामक गुणों से निर्मित इस चित्त ( जड़ पदार्थ ) का निर्माण भी आत्मा के भोग व उसके अपवर्ग के लिए हुआ है । न कि स्वयं के लिए ।

 

जिस प्रकार उस भवन और गाड़ी का प्रयोग उनका मालिक ( व्यक्ति ) अपने लिए करता है । उसी प्रकार इस चित्त का उपयोग भी आत्मा अपने प्रयोजन सिद्ध करने के लिए करता है ।

 

इससे यह सिद्ध होता है कि जड़ पदार्थों का निर्माण चेतन द्वारा उपयोग करने के लिए ही हुआ है ।

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