द्रष्टृदृश्योपरक्तं  चित्तं सर्वार्थम् ।। 23 ।।

 

शब्दार्थ :- द्रष्टृ ( देखने वाला अर्थात आत्मा ) दृश्य ( जिसके द्वारा देखा जाता है अर्थात चित्त से ) उपरक्तम् ( सम्बन्ध या राग होने से ) चित्तं ( चित्त ) सर्व ( सभी ) अर्थम् ( अर्थों अर्थात प्रकार का हो जाता है )

 

 

सूत्रार्थ :- चित्त का आत्मा ( दृष्टा ) व चित्त ( दृश्य ) के साथ सम्बन्ध हो जाने से वह सभी अर्थों वाला प्रतीत होता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त को दृष्टा व दृश्य से सम्बन्ध हो जाने पर उन्हीं के अर्थों वाला बताया गया है ।

 

हमारा चित्त त्रिगुणात्मक होने के कारण अलग- अलग प्रकार का प्रतीत होता है । जब वह चित्त आत्मा के माध्यम से किसी पदार्थ या वस्तु को जानने का प्रयास करता है । तब अज्ञानता के कारण हम चित्त को ग्रहण करने वाला अर्थात दृष्टा मानने की भूल करते हैं ।

 

उसी चित्त को हम किसी भी विषय को जानने का साधन भी मानते हैं । जो कि सत्य है । जिसे दृश्य कहते हैं । साथ ही हम विषय का ज्ञान होने से उस चित्त को पदार्थ मानने की भूल करते हैं ।

 

जबकि चित्त का वास्तविक स्वरूप तो दृश्य ही है । जब चित्त का दृश्य वस्तु के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । तब दृश्य और दृष्टा के साथ सम्बन्ध होने से वह दोनों ही प्रकार ( दृश्य व दृष्टा ) के समान हो जाता है । इसके अतिरिक्त इसका अपना निजी स्वरूप भी बरकरार रहता है । इस प्रकार यह तीन प्रकार का प्रतीत होता है । इसे हम दर्पण ( शीशे ) के उदाहरण द्वारा समझ सकते हैं ।

जिस प्रकार दर्पण के सामने दो अलग- अलग रंग के वस्त्र रख दिए जाए तो वह दर्पण दो रंग का नजर आएगा । जहाँ तक एक रंग के वस्त्र की परछाई उस दर्पण पर पड़ेगी वहाँ तक वह दर्पण उसी रंग का दिखाई देगा । और जहाँ से दूसरे रंग के वस्त्र का क्षेत्र ( प्रतिबिम्ब ) शुरू होगा वहाँ से वह दर्पण उसी दूसरे रंग का दिखाई देगा । इन दोनों के अतिरिक्त उस दर्पण का अपना वास्तविक स्वरूप भी होता है ।

 

इस प्रकार अज्ञानता के कारण एक ही प्रकार का दर्पण ( शीशा ) हमें तीन प्रकार का दिखाई देता है ।

 

ठीक इसी अज्ञानता के कारण हम चित्त को विषयों और आत्मा से अलग होते हुए भी उसे उन्हीं के रूप में मानने की भूल करते हैं । इन अज्ञानता को समाधि के द्वारा ही दूर किया जा सकता है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    बहुत ही उत्तम व्याख्या ।
    आपका हृदय से आभार।

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