चित्तेरप्रतिसङ्क्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ।। 22 ।।

 

शब्दार्थ :- चित्ते: ( चेतन आत्मा अथवा पुरुष ) अप्रतिसंक्रमाया: ( किसी भी प्रकार की क्रिया व किसी भी प्रकार के संक्रमण अर्थात सङ्ग से रहित है ) तदाकार ( विषय को ग्रहण किए हुए चित्त से ) आपत्तौ ( सम्पर्क या सम्बन्ध होने से ) स्वबुद्धि ( उसे स्वयं के चित्त का ) संवेदनम् ( ज्ञान हो जाता है )

 

 

सूत्रार्थ :- निश्चित रूप से वह चेतन आत्मा सभी क्रियाओं व सभी प्रकार के सङ्ग ( साथ ) से रहित होती है । लेकिन विषय को ग्रहण किए हुए चित्त के साथ सम्बन्ध स्थापित होने से उसे स्वयं के चित्त अर्थात बुद्धि का ज्ञान हो जाता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में बताया गया है कि जब चेतन आत्मा का चित्त के साथ सम्बन्ध हो जाने से उसे अपनी बुद्धि के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है ।

 

निश्चित रूप से आत्मा सभी प्रकार के विकारों, सङ्ग व परिणाम से पूरी तरह से रहित होती है । लेकिन जैसे ही उसका सम्पर्क विषय का ज्ञान प्राप्त किए हुए चित्त के साथ होता है । वैसे ही आत्मा को सभी वृत्तियों का ज्ञान हो जाता है । जिससे हमें यह लगता है कि यह आत्मा ही कर्ता ( कर्म करने वाला ) और भोक्ता ( विषयों का उपयोग करने वाला ) है । लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है । ऐसा केवल इस लिए लगता है क्योंकि उसे विषयों का ज्ञान हो जाता है । परन्तु आत्मा तो परिणाम रहित अर्थात अपरिवर्तनीय है । यह न ही तो विषयों के साथ परिवर्तित होता है और न ही किसी पदार्थ के साथ मिलता है ।

 

आत्मा द्वारा चित्त के साथ सम्पर्क स्थापित करने से वह केवल अपने चित्त अर्थात बुद्धि को जानने का कार्य करता है । इसे ही स्वयं की बुद्धि का ज्ञान होना कहते हैं । इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं होता है कि आत्मा भी चित्त के साथ परिणामी अर्थात परिवर्तनशील हो गई है ।

 

इसे स्फटिक मणि के उदाहरण से भी समझा जा सकता है । जिस प्रकार स्फटिक मणि के सम्पर्क में कोई अन्य रंग का पदार्थ आ जाता है । तब वह स्फटिक मणि भी उसी रंग की दिखने लगती है । लेकिन वास्तव में स्फटिक मणि का असली स्वरूप कभी भी नहीं बदलता । वह सदा साफ व स्वच्छ ही रहती है । ठीक इसी प्रकार जब आत्मा के सम्पर्क में विषय को ग्रहण किया हुआ चित्त आता है । तो आत्मा को भी उसके विषय का ज्ञान हो जाता है । लेकिन वह आत्मा उस विषय के साथ न ही तो कोई क्रिया करता है और न ही उसके साथ किसी तरह का सङ्ग ( साथ ) । वह आत्मा तो निर्विकार व अपरिवर्तनीय ही रहती है । जिस प्रकार स्फटिक मणि रहती है ।

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