एकसमये चोभयानवधारणम् ।। 20 ।।

 

शब्दार्थ :- च ( और ) एकसमये ( एक ही काल अर्थात समय में ) उभय ( दोनों अर्थात चित्त और विषय के स्वरूप को ) अनवधारणम् ( धारण नहीं किया जा सकता या उनका ज्ञान नहीं हो सकता )

 

  

सूत्रार्थ :- एक ही समय में एक साथ चित्त व विषय दोनों को ही एक साथ ग्रहण नहीं किया जा सकता । अर्थात एक ही समय में चित्त और विषय का ज्ञान एक साथ नहीं हो सकता ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त को एक समय में एक ही विषय को ग्रहण करने योग्य बताया है ।

 

जैसे ही कोई वस्तु या पदार्थ चित्त के सम्पर्क में आती है । वैसे ही आत्मा ( पुरुष ) उसका साक्षात्कार कर लेता है । यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है । क्योंकि चित्त जड़ पदार्थ है और आत्मा चेतन है । चित्त देखने का मात्र माध्यम होता है । देखने वाला तो वह चेतन आत्मा ही है । जैसे ही किसी पदार्थ का प्रतिबिम्ब चित्त पर पड़ता है । वैसे ही वह आत्मा चित्त के माध्यम से उस पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लेता है ।

 

अकेला चित्त इस कार्य को करने में सक्षम नहीं होता । क्योंकि वह स्वयं सत्त्व, रज व तम आदि गुणों से निर्मित जड़ पदार्थ है । जो निरन्तर परिवर्तनशील है । यदि यह कहा जाए कि चित्त एक ही समय में अपने व किसी अन्य पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर सकता है । तो यह बात सिद्धान्त के विरुद्ध होगी । क्योंकि जो स्वयं परिणामी अर्थात परिवर्तनशील हो । वह कैसे एक साथ दो विषयों के स्वरूप को जान सकता है ?

 

चित्त तो केवल अपने सम्पर्क में आने वाले पदार्थ को दृष्टा अर्थात आत्मा के सामने प्रस्तुत करने का कार्य करता है । उसका ज्ञान तो स्वयं आत्मा द्वारा ही किया जाता है । क्योंकि वह आत्मा ही अपरिणामी अर्थात अपरिवर्तनशील है । केवल वही ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता रखता है अन्य कोई नहीं । किसी भी पदार्थ या वस्तु के ज्ञान का ग्रहण ( धारण ) वही कर सकता है जो अपरिवर्तनीय हो । परिवर्तनशील को एक समय में दो पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता । यह उसके ( जड़ पदार्थ के ) विषय से बाहर की बात है ।

 

तभी पिछले सूत्र में भी चित्त को दृश्य ( देखने का माध्यम ) व आत्मा को दृष्टा ( देखने वाला ) बताया गया था ।

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  1. Pranaam Sir! The explanation of the Sutra are really very helpful in understanding it. Thank you for clear and easy meaning.

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