जात्यन्तरपरिणाम:  प्रकृत्यापूरात् ।। 2 ।।

 

शब्दार्थ :- जाति ( शरीर व इन्द्रियों में ) अन्तर ( बदलाव  ) प्रकृति ( प्रकृति की ) आपूरात् ( पूर्णता के ) परिणाम ( परिणाम अथवा फल से होता है )

 

 

सूत्रार्थ :- प्रकृति की पूर्णता से योगी के शरीर व उसकी इन्द्रियों में जो परिवर्तन होता है । वह जात्यन्तर परिणाम कहलाता है ।

 

  

व्याख्या :-  इस सूत्र में शरीर व इन्द्रियों में होने वाले विशेष परिवर्तन अर्थात जात्यन्तर परिणाम का वर्णन किया गया है ।

 

हमारे शरीर का निर्माण अनेक छोटी- छोटी कोशिकाओं से मिकलर हुआ है । प्रत्येक क्षण इन कोशिकाओं का विनाश व निर्माण होता रहता है । जैसे ही पुरानी कोशिकाएँ टूटती हैं । वैसे ही नई कोशिकाओं का निर्माण हो जाता है । इस प्रकार पुरानी कोशिकाओं के मरने व नई कोशिकाओं के बनने से कुछ समय के बाद हमारा शरीर बिलकुल नया बन जाता है ।

 

अच्छे योगाभ्यास, अनुकूल आहार, औषधियों अथवा रसायनों के उचित प्रयोग से हमारा शरीर पहले के मुकाबले ज्यादा ताकतवर व समर्थ होता है । जैसे हम किसी भी व्यक्ति को कई वर्ष के बाद देखते हैं । तो हम उसमें काफी बदलाव देखते हैं । उसके चेहरे व  रंग- रूप आदि में काफी बदलाव मिलता है । यदि कोई व्यक्ति ऊपर वर्णित नियमों का सही रूप से पालन करता है । तो निश्चित तौर से उसका शरीर पहले से ज्यादा समर्थ व ऊर्जावान होगा । और यदि कोई इन नियमों का पालन सही तरीके से नहीं करता है और अहितकारी नियम अपनाता है । तो उसके शरीर में समय से पहले ही बुढ़ापे जैसे लक्षण दिखाई देने लग जाते हैं ।

 

यहाँ पर प्रकृति की पूर्णता की बात कही गई है । पंच भूत ( आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी ) इस प्रकृति के महत्वपूर्ण घटक हैं । और इन्हीं पंच भूतों से हमारे शरीर का निर्माण भी हुआ है । योगाभ्यास द्वारा योगी रजोगुण व तमोगुण का अभाव करके सत्त्वगुण को निरन्तर बढ़ाता रहता है । इससे योगी के शरीर, मन, चित्त व इन्द्रियों में बहुत ज्यादा सामर्थ्यता आ जाती है । और वह पहले से ज्यादा शक्ति व ऊर्जा का अनुभव करता है ।

 

इस प्रकार शरीर, मन, चित व इन्द्रियों में जो परिवर्तन होता है । उससे योगी को  एक नए व समर्थ शरीर की प्राप्ति होती है । इसे ही जात्यन्तर परिणाम कहते हैं ।

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