सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयस्तत्प्रभो: पुरुषस्यापरिणामित्वात् ।। 18 ।।
शब्दार्थ :- तत् ( उस अर्थात उस चित्त के ) प्रभो: ( स्वामी ) पुरुषस्य ( पुरुष अर्थात आत्मा के ) अपरिणामित्वात् ( अपरिणामी अर्थात अपरिवर्तनशील होने से उसे ) चित्तवृत्तय: ( चित्त की सभी वृत्तियाँ ) सदा ( हमेशा ) ज्ञाता ( ज्ञात रहती है अर्थात उनके बारे में उसे सारी जानकारी होती है )
सूत्रार्थ :- उस चित्त के स्वामी अर्थात आत्मा के अपरिवर्तनशील होने से उसे चित्त की सभी वृत्तियों का सदा ज्ञान रहता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में बताया गया है कि आत्मा को चित्त की सभी वृत्तियों का सदा ज्ञान रहता है ।
चित्त का निर्माण तीन गुणों अर्थात सत्त्व, रज व तम से मिलकर हुआ है । इसलिए यह चित्त परिणामी अर्थात परिवर्तनशील होता है । साथ ही यह जड़ पदार्थ है । जड़ पदार्थ का अर्थ है जो स्वयं कुछ भी करने में सक्षम न हो । या जिसकी स्वयं की कोई सत्ता न हो । जो दूसरे के सहारे ही अपना कार्य करने में समर्थ हो । ऐसे पदार्थ को जड़ कहते हैं । जड़ पदार्थ सदा परिवर्तनशील होता है । क्योंकि वह तीन गुणों से निर्मित होता है । यह तीनों गुण ज्ञान से रहित होते हैं । अतः इनके द्वारा निर्मित चित्त भी ज्ञान से रहित होता है । जिसके कारण इसे किसी भी पदार्थ का ज्ञान स्वयं नहीं होता । बल्कि आत्मा के द्वारा ही होता है ।
इस प्रकार चित्त जड़ पदार्थ हुआ । अब बारी आती है चेतन पदार्थ की । यहाँ आत्मा अथवा पुरुष को चेतन माना गया है । जो सदा अपरिवर्तनशील रहती है इसीलिए आत्मा को अपरिणामी कहा जाता है । आत्मा इन तीन गुणों से रहित होती है । अर्थात आत्मा का निर्माण इन तीन गुणों से नहीं होता । इसीलिए यह आत्मा परिणाम रहित होती है । आत्मा अथवा पुरुष अपरिणामी होने से ही ज्ञान युक्त होता है । जो सभी वस्तुओं और पदार्थों को जानने में समर्थ ( योग्य ) होता है ।
अब प्रश्न उठता है कि चित्त जड़ पदार्थ होते हुए कैसे कार्य करता है ? इसके उत्तर को हम एक उदाहरण के साथ समझने का प्रयास करते हैं :-
हम सभी के घरों में रोशनी प्रदान करने वाले बल्ब या ट्यूब लाईट अवश्य ही होंगी । क्या आप बिना बिजली के उन बल्ब या ट्यूब लाईटों से रोशनी पैदा कर सकते हो ? आपका उत्तर नहीं में ही होगा । लेकिन बिजली होने पर वह ( बल्ब या ट्यूब लाइट ) तुरन्त रोशनी प्रदान करने लगते हैं । बिना किसी प्रकार की देरी किए । इसका अर्थ यह हुआ कि रोशनी बिजली के कारण मिलती है । केवल बल्ब या ट्यूब के सहारे नहीं ।
ठीक इसी प्रकार चित्त भी बल्ब या ट्यूब की तरह ही जड़ पदार्थ है जो स्वयं रोशनी अर्थात ज्ञान पैदा नहीं कर सकता । वह बिजली रूपी आत्मा के साथ मिलकर ही ज्ञान रूपी रोशनी पैदा करने में सक्षम होता है । इसीलिए आत्मा को चित्त का स्वामी कहा है ।
यदि आत्मा या पुरुष भी परिणामी होता तो इसे भी चित्त की वृत्तियों का कभी ज्ञान होता और कभी नहीं । लेकिन आत्मा चित्त का स्वामी होता है । इसीलिए उसे चित्त की सभी वृत्तियों अर्थात विषयों का सदा ज्ञान ( जानकारी ) रहती है ।
इस प्रकार चित्त जड़ व आत्मा चेतन है । तभी वह आत्मा उस चित्त का स्वामी कहलाता है ।
Very simple and easy explanation even A layman can understands in one reading thanku so much in my gratitude for this simple explanation which i have never read before is i’ll share it as much as possible
Thanku again
Thank you sir
Nice explain guru ji.
Dhanyawad.
Thank you sir
आप पृरुष शब्द के अर्थ रूप में आत्मा शब्द क्यों प्रयोग कर रहे हैं जबकि पतंजलि और सांख्य में कहीं भी आत्मा शब्द नहीं दिखता । आत्मा वेदांत का शब्द है जो अद्वित्य बाद दर्शन है ।
आप पाठकों को गुमराह न करें । सभीं 10 दर्शन स्वतंत्र दर्शन हैं उनकी स्वतंत्रता यथावत बनी रहनी चाहिए ।