तदुपरागापेक्षित्वाच्चित्तस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम् ।। 17 ।।
शब्दार्थ :- तद् ( उस अर्थात उस दिखाई देने वाली वस्तु के साथ ) उपराग ( सम्बन्ध या लीन होने की ) अपेक्षित्वात् ( अपेक्षा अर्थात कामना करने वाला होने से ) चित्तस्य ( चित्त के ) वस्तु ( दिखाई देने वाली वस्तु या पदार्थ ) ज्ञात ( जिनकी जानकारी रहती है अर्थात जानने वाले ) अज्ञातम् ( जिनकी जानकारी नहीं रहती अर्थात न जानने वाले होते हैं )
सूत्रार्थ :- उस बाहरी अर्थात दिखाई देने वाली वस्तु या पदार्थ के साथ सम्बन्ध रखने की कामना रखने वाले चित्त के लिए बाह्य पदार्थ ज्ञात ( जिनकी जानकारी होती है ) और अज्ञात ( जिनकी जानकारी नहीं होती ) दो प्रकार के होते हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त के बाह्य पदार्थों के प्रति ज्ञात व अज्ञात स्वरूप की चर्चा की गई है ।
किसी भी वस्तु को जानने के लिए चित्त इन्द्रियों की सहायता लेता है । जैसे ही चित्त और इन्द्रियों का आपस में सम्बन्ध होता है । वैसे ही हमें उससे सम्बंधित वस्तु या पदार्थ का ज्ञान हो जाता है । जैसे- किसी भी वस्तु को देखने के लिए चक्षु ( आँख ) नामक ज्ञानेंद्रि के साथ मिलकर चित्त उसका दर्शन करता है । अर्थात उसे देखता है । चित्त से ज्ञान होता है और आँख उस ज्ञान का साधन है ।
सूत्रकार ने यहाँ पर चित्त को लोहे व सम्बंधित विषय को चुम्बक की संज्ञा दी है । जिस प्रकार लोहा और चुम्बक एक दूसरे के पास आते ही आपस में आकर्षित हो जाते हैं । वैसे ही चित्त और विषय भी एक दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाते हैं । इनके आकर्षण का माध्यम इन्द्रियाँ ही होती हैं । क्योंकि बिना इन्द्रियों की सहायता के चित्त को किसी भी वस्तु का ज्ञान नहीं हो सकता ।
सूत्र में चित्त का बाह्य पदार्थों के साथ ज्ञात व अज्ञात दोनों ही प्रकार का सम्बन्ध बताया गया है । जो इस प्रकार है :-
- ज्ञात :- जिस वस्तु या पदार्थ की जानकारी हो जाती है । उसे ज्ञात कहते हैं । जैसे किसी पदार्थ को हम वर्तमान समय में अपने सामने देख रहे हैं तो यह वस्तु का ज्ञात भाव हुआ । अर्थात चित्त में उसकी उपस्थिति है । दूसरे अर्थ में प्रत्येक वह वस्तु जिसको सामने देखा, सुना या महसूस किया जा रहा है । वह उस वस्तु का ज्ञात स्वरूप होता है ।
- अज्ञात :- जिस वस्तु या पदार्थ को वर्तमान समय में नहीं देखा या महसूस किया जा रहा । वह उस वस्तु का अज्ञात स्वरूप । अर्थात चित्त में उसका अभाव है । जैसे दूर स्थान पर रखी वस्तु का चित्त द्वारा प्रत्यक्षीकरण नहीं किया जा सकता । यह चित्त का अज्ञात भाव होता है ।
अतः इन्द्रियों के माध्यम से जब किसी वस्तु या पदार्थ का प्रतिबिम्ब चित्त के ऊपर पड़ता है, तो चित्त को उस वस्तु का ज्ञान होता है । और जिन वस्तुओं के साथ इन्द्रियों का चित्त के साथ सम्बन्ध नहीं हो पाता । वह चित्त के लिए अज्ञात रहती है । अर्थात चित्त को उनकी जानकारी नहीं हो पाती ।
यही चित्त का ज्ञात और अज्ञात स्वरूप है ।
ॐ गुरुदेव*
बहुत सुन्दर व्याख्या ।
आपको हृदय से आभार।
Nice guru ji.