वस्तुसाम्ये चित्तभेदात्तयोर्विभक्त: पन्था: ।। 15 ।।

 

शब्दार्थ :- वस्तु ( वस्तु या पदार्थ ) साम्ये ( एक समान होने से भी ) चित्त ( ज्ञान या जानकारी के ) भेदात् ( अलग- अलग होने से ) तयो: ( उन दोनों अर्थात पदार्थ और उसके ज्ञान का ) पन्था ( मार्ग या अस्तित्व ) विभक्त: ( अलग- अलग दिखाई देता है )

 

 

सूत्रार्थ :- वस्तु या पदार्थ के एक समान होने पर भी चित्त अर्थात ज्ञान में अन्तर होने से उन दोनों अर्थात वस्तु और उसके ज्ञान में भी अन्तर दिखाई देता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त की भिन्नता का परिणाम बताया गया है ।

 

एक ही वस्तु अथवा पदार्थ को चित्त अर्थात ज्ञान के अलग- अलग प्रकार का होने से उसमें भिन्नता दिखाई देती है । जैसे अपने मित्र को देखने से सुख का, शत्रु अर्थात दुश्मन को देखने से क्रोध अथवा दुःख, अपने पुत्र को देखने से मोह और विवेक ज्ञान द्वारा किसी को देखने से न ही सुख का अनुभव होता है और न ही दुःख का । इस प्रकार चित्त की भिन्नता अर्थात अन्तर होने से हम उस वस्तु या पदार्थ को अलग- अलग समझते हैं ।

 

लेकिन वास्तव में तो वह एक ही प्रकार का व्यक्ति होता है । इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि एक व्यक्ति सभी के लिए न तो हितकारी हो सकता है और न ही सबके लिए अहितकारी हो सकता है । जिस प्रकार समाधिपाद के 33 वे सूत्र में चित्त प्रसादन की बात करते हुए महर्षि पतंजलि ने चित्त की चार प्रकार की भावनाओं बताई हैं ।

 

उनमें सबसे पहले मैत्री भाव अर्थात मित्रता को बताते हुए कहते हैं कि हमें अच्छे व सुख- सम्पन्न व्यक्तियों के साथ मित्रता की भावना करनी चाहिए । करुणा की भावना को दुःखी व्यक्तियों के प्रति प्रयोग करने की बात कही गई है । तीसरी भावना प्रसन्न्ता की है जिसका उपयोग हमें पुण्य अर्थात धार्मिक व्यक्तियों के प्रति करना चाहिए । और अन्त में उपेक्षा भावना की बात कहते हुए कहा है कि जो दुष्ट अथवा पापी लोग हैं उनके प्रति उपेक्षा अर्थात उदासीनता की भावना रखनी चाहिए ।

 

ऊपर वर्णित व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि एक ही चित्त अलग- अलग प्रकार की भावना करने में सक्षम होता है । जैसे ही हमारे सामने हमारा कोई प्रिय व्यक्ति या वस्तु आती है । वैसे ही हमें उसको देखकर हमारा चित्त हमें सुख का अनुभव करवाता है । और जैसे ही कोई बुरा व्यक्ति हमारे सामने आता है । वैसे ही हमें दुःख और तकलीफ होती है । जबकि वस्तु या प्राणी तो एक ही है । लेकिन उसके प्रति चित्त की भिन्नता होने से हमें उसमें भी भिन्नता दिखाई देती है ।

 

चित्त में होने वाली इस भिन्नता का कारण भी हमारे त्रिगुण ( सत्त्व, रज व तम ) ही होते हैं । जैसे ही अविद्या और अज्ञान का प्रभाव बढ़ता है वैसे ही इन त्रिगुणों में भी असन्तुलन होना प्रारम्भ हो जाता है । इसी से हमारे अन्दर एक ही वस्तु या व्यक्ति के प्रति भिन्नता उत्पन्न होती है । परन्तु विवेक ज्ञान का प्रभाव बढ़ने से हमारे अन्दर पड़ा अज्ञान व अविद्या का पर्दा हट जाता है । जिससे हम सभी वस्तु व पदार्थों को एक समान भाव से ही देखते हैं । किसी तरह की भिन्नता नहीं रहती ।

Related Posts

October 15, 2018

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।। 34 ।।    शब्दार्थ :- पुरुषार्थ ...

Read More

October 14, 2018

क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्य: क्रम: ।। 33 ।।   शब्दार्थ :- क्षण ( पलों के ) प्रतियोगी ...

Read More

October 13, 2018

तत: कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम् ।। 32 ।।     शब्दार्थ :- तत: ( उसके अर्थात ...

Read More

October 12, 2018

तदा सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेयमल्पम् ।। 31 ।।   शब्दार्थ :- तदा ( तब अर्थात क्लेशों ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

  1. ॐ गुरुदेव*
    चित्त की भिन्नता के परिणाम की अति उत्तम व्याख्या प्रस्तुत की है आपने। आपको हृदय से आभार।

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}