अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्वभेदाद् धर्माणाम् ।। 12 ।।
शब्दार्थ :- धर्माणाम् ( धर्मों के अर्थात पदार्थ की विशेषताओं का ) अध्व ( काल अर्थात समय के ) भेदात् ( भेद अर्थात अन्तर से ) अतीत ( भूतकाल अर्थात जो बीत चुका ) अनागतम् ( भविष्य अर्थात आने वाला समय में ) स्वरूपत: ( पदार्थ या वस्तुएँ अपने स्वरूप अर्थात कारण रूप में विद्यमान रहती हैं )
सूत्रार्थ :- पदार्थों के धर्मों में भेद होने से जिन पदार्थों का समय बीत चुका है । और जिनका समय आने वाला है । वह पदार्थ कहीं न कहीं कारण रूप में मौजूद होते हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में पदार्थ की विशेषता को कभी भी नष्ट न होने वाली बताया है ।
कोई भी पदार्थ या वस्तु तीन अवस्थाओं में होती है । जिसका समय बीत चुका है वह उसका भूतकाल कहलाता है । जिस पदार्थ का अस्तित्व वर्तमान समय में चल रहा है वह उस पदार्थ की वर्तमान अवस्था होती है । और जो पदार्थ आने वाले समय में आएगा वह उसकी भविष्य काल की अवस्था होगी ।
लेकिन किसी भी पदार्थ का कभी भी नितान्त अर्थात सर्वथा अभाव नहीं होता है । कारण रूप में उसकी विद्यमानता रहती ही है । जैसे- मिट्टी के भविष्य में घड़ा कारण रूप में मौजूद होता है । जब कुम्हार द्वारा घड़ें का निर्माण कर दिया जाता है । तो कारण का प्रत्यक्ष रूप होता है । जिसकी अभिव्यक्ति वर्तमान में हुई है । और जब वह घड़ा एक समय के बाद गल कर टूट जाता है । तब वह उसकी भूतकाल की अवस्था होती है । लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह है कि घड़े के टूटने पर भी उसका सर्वथा अभाव कभी भी नहीं होता है । क्योंकि कार्य अभी भी कारण रूप में मौजूद है । अर्थात घड़े के टूटने पर भी मिट्टी का अस्तित्व तो खत्म नहीं हुआ । कार्य कहीं न कहीं कारण रूप में विद्यमान रहता है । जैसे ही उसे उपयुक्त माहौल मिलता है । वैसे ही वह पुनः अस्तित्व में आ जाता है । कोई भी पदार्थ भूतकाल व भविष्य काल की अवस्था में ही अपने कारण में लीन होता है । वर्तमान में तो उस पदार्थ की अभिव्यक्ति अर्थात उपस्थिति होती है ।
इससे यह सिद्ध होता है कि किसी भी पदार्थ का कभी भी पूरी तरह से अभाव नहीं होता । केवल उसके नष्ट होने से वह वापिस अपने कारण रूप में स्थित हो जाता है । जहाँ से उसकी उत्पत्ति हुई थी वह वहीं पर वापिस लौट जाता है । जैसा कि सांख्य दर्शन कहता है कि कार्य कारण रूप में पहले से ही विद्यमान रहता है । जैसे- गन्ने में रस, दूध में घी, तिल में तेल पहले से ही मौजूद होते हैं । इसे सत्कार्यवाद का सिद्धान्त कहा जाता है ।