हेतुफलाश्रयालम्बनै: संगृहीतत्वादेषामभावे तदभाव: ।। 11 ।।

 

शब्दार्थ :- हेतु ( कारण ) फल ( परिणाम ) आश्रय ( शरण ) आलम्बनै: ( अभिव्यक्ति से ही ) संगृहीतत्वात् ( वासनाओं का संग्रहण अथवा एक जगह इकट्ठा करना से ) एषाम् ( इन अर्थात उपर्युक्त चार कारणों के ) अभावे ( न होने से अर्थात इन सभी के न रहने से ) तद् ( उन अर्थात उन वासनाओं का ) अभाव ( भी अभाव हो जाता है अर्थात वह वासनाएँ भी नहीं रहती )

 

 

सूत्रार्थ :- हेतु, फल, आश्रय व आलम्बन से ही वासनाओं का संग्रह होता है । इसलिए इन उपर्युक्त चार कारणों का अभाव होने से अर्थात इनके न रहने से उन सभी वासनाओं का भी अभाव हो जाता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में वासनाओं के संग्रह होने के कारण व उनके समाधान का वर्णन किया गया है ।

 

एक योग साधक किस प्रकार से अनादि कही जाने वाली वासनाओं का अभाव करके कैवल्य अर्थात मुक्ति को प्राप्त कर सकता है ? इस प्रकार का प्रश्न जब उठता है तो सबसे पहले हमें उन अनादि वासनाओं के कारण को खोजना होगा । तभी हम उसका स्थाई रूप से समाधान कर पाएंगे ।

 

इस सूत्र में वासनाओं के कारण, परिणाम, आश्रय व उनकी अभिव्यक्ति को बताया गया है । साथ ही यह भी बताया है कि इन सबका अभाव होने से वासनाओं का भी अभाव हो जाता है । अब हम इनकी क्रमशः चर्चा करते हैं :-

  1. हेतु
  2. फल
  3. आश्रय
  4. आलम्बन ।

 

  1. हेतु :- हेतु का अर्थ होता है कारण । अर्थात वासनाओं की उत्पत्ति का कारण । इन सभी वासनाओं अर्थात कर्म संस्कारों का मूल कारण अविद्या आदि क्लेश होते हैं । जब कोई भी मनुष्य शुभ अर्थात अच्छे कार्य करता है । तब उसे सुख की प्राप्ति होती है । और जब वह अशुभ अर्थात बुरे कार्य करता है । तब उसे दुःखों की प्राप्ति होती है । इस प्रकार सुख के मिलने से व्यक्ति को सुख के प्रति राग उत्पन्न होता है । और दुःख प्राप्त होने पर उसके प्रति द्वेष उत्पन्न होता है । इस प्रकार उसकी कर्म संस्कारों में आसक्ति बनी रहती है ।
  2. फल :- किसी भी परिणाम को फल कहा जाता है । जब भी हम कोई कार्य करते हैं । उसका कुछ न कुछ परिणाम अवश्य ही मिलता है । लेकिन जब हम फल की इच्छा प्राप्ति को उद्देश्य बनाकर कोई कर्म करते हैं । तो उस कर्म का उद्देश्य फल की प्राप्ति करना हो जाता है । फिर चाहे वह शुभ कर्म ही क्यों न हो । इससे भी मनुष्य में कर्म के संस्कार बने रहते हैं । तभी सूत्रकार ने योगियों के लिए निष्काम कर्म को ही उपयुक्त कर्म माना है ।
  3. आश्रय :- आश्रय शब्द का अर्थ होता है शरण देना । जब हम शुभ कर्म करते हैं तो हमारे अन्दर अच्छे संस्कार बनते हैं । और यदि हम अशुभ कर्म करते हैं तो हमारे अन्दर बुरे संस्कार बनते हैं । ये सभी अच्छे व बुरे संस्कार हमारे चित्त में संग्रहित ( इकट्ठे ) होते रहते हैं । संस्कार अच्छे हों या बुरे होते तो आखिर संस्कार ही हैं । जब तक यह संस्कार हमारे चित्त में आश्रय बनाए रखेंगे । तब तक जीव मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता ।
  4. आलम्बन :- आलम्बन का अर्थ है अभिव्यक्ति । अर्थात जो संस्कार चित्त में विद्यमान हैं । उनको संग्रहित या व्यक्त करने का माध्यम आलम्बन कहलाता है । हमारी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से इन सभी संस्कारों का आलम्बन किया जाता है । जैसे- शब्द को सुनना, किसी वस्तु या पदार्थ को स्पर्श करना, किसी पदार्थ के दर्शन करना, किसी द्रव्य के स्वाद को चखना व किसी भी प्रकार की गन्ध को सूँघना आदि ।

 

 

ऊपर वर्णित वासनाओं के हेतु, फल, आश्रय व आलम्बन का अभाव कर देने से हमारे सभी कर्म संस्कारों का भी नितान्त अभाव हो जाता है । योग साधना का अभ्यास करके साधक सभी क्लेशों, आसक्ति, चित्त के संस्कारों व उनकी अभिव्यक्ति का अभाव कर सकता है ।

जैसे ही साधक कर्म संस्कारों से मुक्त हो जाता है । वैसे ही उसे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है ।

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  1. ??प्रणाम आचार्य जी! निष्काम कम॔ योगी बनने की यह सुंदर सीख हम सभी को स्पष्ट भाषा मे देने के लिए हम सब आपके आभारी है ।ओम! ?

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