त्रयमन्तरङ्गं पूर्वेभ्य: ।। 7 ।।

 

शब्दार्थ :- पूर्वेभ्य: ( पूर्व अर्थात पहले कहे गए की अपेक्षा ) त्रयम् ( ये तीन अर्थात धारणा, ध्यान व समाधि ) अन्तरङ्गंम् ( अन्तरङ्ग अर्थात ज्यादा निकट हैं । )

 

सूत्रार्थ :- पहले कहे गए ( यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार की अपेक्षा ) यह तीन ( धारणा, ध्यान व समाधि ) समाधि के ज्यादा निकटता वाले साधन हैं ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में अष्टांग योग के आन्तरिक अंगों ( धारणा, ध्यान व समाधि ) को समाधि के ज्यादा निकट बताया है ।

 

समाधि की प्राप्ति के लिए योगसूत्र में जी भी साधना के मार्ग बताए गए हैं । उनमें से अष्टांग योग सबसे प्रमुख साधन है । जिसका प्रयोग किसी भी प्रकार का साधक आसानी से कर सकता है । यह बिलकुल नए साधकों के लिए बहुत ही उपयोगी साधना मार्ग है ।

 

इसके आठ अंग होते हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि ।

 

इनमें से पहले पाँच ( यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार ) की गणना अष्टांग योग के बहिरङ्ग अर्थात बाहरी अंगों में की जाती है ।

और अन्तिम तीन ( धारणा, ध्यान व समाधि ) की गणना अष्टांग योग के अन्तरङ्ग अर्थात भीतरी अंगों में की जाती है ।

 

यम, नियम आदि बाहरी अंग होने से साधना में बाहर से सहायता प्रदान करते हैं । और धारणा, ध्यान आदि साधना के भीतरी अंग होने से भीतर से सहायता करते हैं ।

 

जो अंग जितना निकट होगा वह उतनी ही ज्यादा सहायता करता है । और जो जितना दूर होगा वह उतनी ही कम सहायता कर सकता है ।

इसलिए धारणा, ध्यान व समाधि को सम्प्रज्ञात समाधि के अन्तरङ्ग ( निकटतम ) साधन कहा है ।

 

विशेष :- पहले साधक को बाहरी अर्थात पहले पाँच अंगों का ही पालन करना चाहिए । उसके बाद आन्तरिक अंगों का । बिना बाहरी साधनों का अभ्यास करें भीतरी अंगों में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती ।

अतः पहले बहिरङ्ग अंगों की साधना करे बाद में अन्तरङ्ग की ।

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  1. ?प्रणाम आचार्य जी! इस सुंदर माग॔ दश॔न के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद! ओ3म् राम ?

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