तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।। 54 ।।

 

शब्दार्थ :- तारकं ( स्वयं की प्रतिभा अर्थात योग्यता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ) सर्वविषयं ( सभी पदार्थों या तत्त्वों को जानने वाला ) सर्वथा ( सदा अर्थात भूतकाल, वर्तमान काल व भविष्य काल में ) विषयम् ( सभी विषयों को जानने वाला ) ( और ) अक्रमम् ( बिना किसी क्रम अर्थात विभाग के ) इति ( ऐसा या इस प्रकार का ) विवेकजं ( विवेक से उत्पन्न ) ज्ञानम् ( ज्ञान कहलाता है )

 

  

सूत्रार्थ :- योगी की स्वयं की सामर्थ्यता ( योग्यता ) से उत्पन्न होने वाला, जो सभी पदार्थों के विषयों को, उनके सभी कालों ( भूत, वर्तमान व भविष्य ) को जानने वाला होता है । और यह सब बिना किसी क्रम अर्थात विभाग के ही पैदा होने वाला ज्ञान होता है । जिसे विवेक से उत्पन्न ज्ञान कहा जाता है ।

 

 

व्याख्या :-  इस सूत्र में विवेक से उत्पन्न ज्ञान की चार विशेषताओं का वर्णन किया गया है ।

 

इस विवेक से पैदा हुए ज्ञान की चार विशेषताओं का वर्णन इस प्रकार है :-

  1. तारक
  2. सर्व विषय
  3. सर्वथा विषय
  4. अक्रम ।

 

  1. तारक :- तारक से अभिप्राय उस ज्ञान से है जो योगी की स्वयं की बुद्धि से उत्पन्न होता है । उस ज्ञान का अन्य कोई माध्यम नहीं होता । साधना के उच्च स्तर पर जब साधक पर वैराग्य के भाव को प्राप्त हो जाता है । तब उसे इस प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति होती है । तारक को तारने वाला अर्थात इस संसार रूपी सागर को पार करवाने वाला भी कहा जाता है । यही ज्ञान योगी को कैवल्य की प्राप्ति करवाता है ।
  2. सर्व विषय :- सर्व विषय का अर्थ होता है जो समस्त विषयों का साक्षात्कार कर सके । सर्व विषय शब्द का प्रयोग यहाँ पर सभी मोक्ष प्राप्त करवाने वाले पदार्थों के सन्दर्भ में प्रयोग किया गया है । अर्थात जो- जो पदार्थ योगी को मोक्ष प्रदान करवाने वाले होते हैं । उन सभी पदार्थों के विषयों का ज्ञान साधक को हो जाता है ।
  3. सर्वथा विषय :- सर्वथा का अर्थ है सभी कालों अर्थात समय में सब पदार्थों को जानने वाला । विवेक जनित ज्ञान से योगी को सभी कालों में सब पदार्थों की सभी अवस्थाओं की जानकारी हो जाती है । सभी काल का अर्थ होता है पदार्थ की भूतकाल में क्या स्थिति थी ? वर्तमान समय में क्या स्थिति है ? और भविष्य में उसकी क्या स्थिति होगी ? आदि सभी अवस्थाओं का उसे भली – भाँति ज्ञान हो जाता है ।
  4. अक्रम :- अक्रम का अर्थ होता है बिना क्रम अर्थात बिना किसी विभाग के । यह विवेक से उत्पन्न ज्ञान क्रम की सीमा से परे ( रहित ) होता है । क्रम में एक के बाद दूसरी अवस्था का ज्ञान होता है । जैसे सुबह के बाद दोपहर, दोपहर के बाद सांयकाल व सांयकाल के बाद रात्रि का ज्ञान होता है । लेकिन विवेक जनित ज्ञान के उत्पन्न होने से योगी को एक साथ ही सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । इसके लिए किसी क्रम की आवश्यकता नहीं रहती ।

 

इस प्रकार इस विवेक जनित ज्ञान से उपर्युक्त चार प्रकार की विशेषताएँ योगी में आती हैं । यह ज्ञान की उच्च अथवा सर्वोच्च अवस्था होती है । इसके जानने के बाद अन्य किसी को जानने की आवश्यकता नहीं रहती । यही ज्ञान योगी को कैवल्य की प्राप्ति करवाता है । जिसका वर्णन अगले सूत्र में किया जाएगा ।

Related Posts

September 11, 2018

सत्त्वपुरुषयो: शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति ।। 55 ।।     शब्दार्थ :- सत्त्व ( बुद्धि ) ...

Read More

September 10, 2018

तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् ।। 54 ।।   शब्दार्थ :- तारकं ( ...

Read More

September 9, 2018

जातिलक्षणदेशैरन्यताऽवच्छेदात्तुल्योस्तत: प्रतिपत्ति: ।। 53 ।।   शब्दार्थ :- जाति ( कोई विशेष समूह ) ...

Read More

September 8, 2018

क्षणतत्क्रमयो: संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् ।। 52 ।।   शब्दार्थ :- क्षण ( छोटे से छोटे ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

  1. Pranaam Sir! ?? your posts are always so helpful. You make it so easy with your detailed explanations. Thank you so much

  2. ॐ गुरुदेव*
    आपने विवेक ज्ञान से उत्पन्न चारों विशेषताओं का
    अति सुन्दर वर्णन प्रस्तुत किया है।
    आपको हृदय से आभार।

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}