स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात् ।। 51 ।।
शब्दार्थ :- स्थानि ( उच्च स्थानों या व्यक्तियों से ) उपनिमन्त्रणे ( निमंत्रण या बुलावा मिलने पर ) सङ्ग ( आसक्ति या राग ) स्मय ( अभिमान या घमण्ड ) अकरणम् ( नहीं करना चाहिए ) पुनः ( नहीं तो दोबारा से या फिर से ) अनिष्ट ( गलत या बाधा होने का ) प्रसङ्गात् ( अवसर हो सकता है )
सूत्रार्थ :- उच्च स्थानों अर्थात बड़े कुल अथवा घरानों से या फिर बड़े व्यक्तियों के द्वारा निमन्त्रण मिलने पर योगी को राग और अभिमान ( घमन्ड ) नहीं करना चाहिए । ऐसा करने से योग साधना में दोबारा से बाधा या विचलित करने वाले कारण पैदा हो जाते हैं ।
व्याख्या :- इस सूत्र में योग मार्ग में बाधा या रुकावट पैदा करने वाले कारणों का वर्णन किया गया है ।
जब योगी साधना करता है तो बहुत सारे कारक ऐसे होते हैं जो साधना में सहायक होते हैं । लेकिन वहीं कुछ कारक ऐसे भी होते हैं जो साधना में रुकावट पैदा करके साधक को पतन के मार्ग पर ले जाते हैं । यहाँ पर ऐसे ही कारकों का वर्णन करते हुए बताया गया है कि जब योगी साधना के चरम पर होता है । तब उसकी प्रसिद्धि दूर- दूर तक फैलती है ।
उस प्रसिद्धि से प्रभावित होकर बड़े कुल या बड़े पदों पर बैठे व्यक्तियों की उन योगियों से आशीर्वाद अथवा मार्गदर्शन प्राप्त करने की इच्छा होती है । अतः वह योगियों का आदर- सत्कार करने के लिए उन्हें निमंत्रण देते हैं । उस आदर- सत्कार को देखकर योगी को उससे आसक्ति ( राग ) और अभिमान ( घमण्ड ) नहीं करना चाहिए । ऐसा करने से योगी को इस बात का घमण्ड हो जाता है कि सभी समाज के सभी प्रतिष्ठित व ऊँचे कुलों के लोग मुझे सम्मानित करते हैं, बड़े समारोह आदि में बुलाते हैं । ऐसा सोचने से निश्चित रूप से योगी का पतन होता है ।
इससे योगी अपने आप को श्रेष्ठ समझने लगता है और दूसरों को अपने से निकृष्ट ( नीचा ) मानने लगता है । जिससे उसके अन्दर उस सम्मान व सत्कार के प्रति आसक्ति अर्थात राग का भाव पैदा हो जाता है । यह आसक्ति और अहंभाव ही योगी के पतन का कारण बनते हैं ।
यहाँ पर योगी के चार प्रकारों का वर्णन किया गया है । जो इस प्रकार हैं –
- प्रथमकल्पिक
- मधुभूमिक
- प्रज्ञाज्योति
- अतिक्रान्त भावनीय
- प्रथमकल्पिक :- यह योगी साधक की प्रथम या प्रारम्भिक अवस्था होती है । इस अवस्था में साधक केवल अभ्यास करने वाला होता है । किसी भी प्रकार की सिद्धि उसे प्राप्त नहीं होती । इसे साधक की प्रथमकल्पिक अवस्था कहते हैं ।
- मधुभूमिक :- यह योगी की दूसरी अवस्था होती है । इस अवस्था में योगी सम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्त कर लेता है । अथवा योगी को ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति हो जाती है । इसे मधुभूमिक अवस्था कहते हैं ।
- प्रज्ञाज्योति :- इस तीसरी अवस्था में योगी सभी भूतों ( आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी ) व सभी इन्द्रियों ( कर्मेन्द्रियों- ज्ञानेन्द्रियों ) पर विजय प्राप्त कर लेता है । इसे प्रज्ञाज्योति कहते हैं ।
- अतिक्रान्त भावनीय :- यह साधक की चौथी व अन्तिम अवस्था है । जिसमें साधक असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लेता है । इसमें योगी सात प्रकार की उत्कृष्ट प्रज्ञा का स्वामी होता है । इस उत्कृष्ट प्रज्ञा का वर्णन साधनपाद के सूत्र संख्या 27 में किया जा चुका है । जिसका वर्णन इस प्रकार है :-
जब योगी विवेकज्ञान द्वारा विवेकख्याति को प्राप्त कर लेता है । तब उसके अन्दर सात प्रकार की उत्कृष्ट ( सबसे ऊँची ) अवस्था वाली बुद्धि उत्पन्न होती है । जिसका वर्णन इस प्रकार है –
- जब योगी यह अच्छी तरह से समझ लेता है कि जो भी कुछ मुझे जानना था । मैं वो जान चुका हूँ । अब और कुछ जानने लायक नहीं बचा है । यह पहली अनुभूति अर्थात अवस्था होती है ।
- जिसका मुझे अभाव अर्थात जिसको दूर करना था । उसको मैंने दूर कर दिया है । जैसे- पुरूष और प्रकृत्ति के संयोग का अभाव कर देना । यह दूसरी अनुभूति होती है ।
- मैंने जो प्राप्त करना था । वह मुझे प्राप्त हो चुका । अब और कुछ प्राप्त करने लायक नहीं बचा है । जैसे – आत्म साक्षात्कार द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करने के बाद कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं रहता । यह तीसरी अनुभूति है ।
- जो कुछ भी करने योग्य था । वह सब भी मैं चुका हूँ । अब ऐसा कुछ नहीं बचा है जो करना बाकी हो । जैसे- विवेकज्ञान को सिद्ध कर लिया । इसके बाद कुछ भी सिद्ध करना बाकी नहीं रहता । यह चौथी अनुभूति है ।
- बुद्धि के दो प्रयोजन होते हैं एक भोग और दूसरा मोक्ष । यह दोनों ही पूर्ण हो चुके । अब इसका कोई अन्य कार्य शेष नहीं बचा है । यह पाँचवी अनुभूति है ।
- चित्त के तीन गुण होते हैं- सत्त्व, रज एवं तम । भोग एवं मोक्ष के पूरा होने से यह तीनों गुण भी चित्त के साथ ही विलीन हो चके । अब इनका भी कोई और प्रयोजन नहीं बचा । यह छटी अनुभूति है ।
- जब आत्मा सभी गुणों से रहित होकर आत्मस्थिति को प्राप्त कर लेती है । तो वह अविचल हो कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाती है । यह सातवीं एवं अन्तिम अनुभूति होती है ।
इस प्रकार विवेकख्याति के प्राप्त होने पर योगी को ऊपर वर्णित सात प्रकार की उच्च अवस्था वाली बुद्धि हो जाती है ।
Very nice line g
Dhanyawad.
ॐ गुरुदेव*
बहुत ही अच्छा वर्णन किया है आपने।
आपको बहुत बहुत धन्यवाद।
Bahut Sundar,Kalyadkari Va Pragya Vardhak????????
Pranaam Sir! ?? ati sundar varnan
Guru ji nice explain about yoga perfect path.
??प्रणाम आचार्य जी! यह सूत्र पढ कर बस यही लग रहा है कि महर्षि पतंजलि जी जो एक त्रिकाल दृष्टा है उन्होंने आचार्य सोमवीर जी को बहुत ही सही कार्यभार दिया है ।क्या वण॔न आपने किया है ****जिसका कोई जवाब नही! वाह वाह और वाह!अहो भाग्य! बहुत ही धन्यवाद?!