तज्जयात् प्रज्ञालोक: ।। 5 ।।

 

शब्दार्थ :- तत् ( उस अर्थात संयम पे ) ज्यात् ( जय अर्थात विजय प्राप्त करने पर ) प्रज्ञा ( बुद्धि का ) आलोक:, ( प्रकाश या विकास होता है । )

 

सूत्रार्थ :- संयम पर विजय अर्थात संयम में सिद्धि प्राप्त होने पर योगी की बुद्धि प्रकाशित ( विकसित ) होती है ।

 

 व्याख्या :- इस सूत्र में संयम सिद्धि से मिलने वाले लाभ की चर्चा की गई है ।

 

जब योगी साधक अष्टांग योग के अंगो का अभ्यास करते हुए धारणा, ध्यान व समाधि में सिद्धि प्राप्त करता है । तब वह अवस्था संयम कहलाती है । उस संयम के सिद्ध होने पर साधक में समाधि प्रज्ञा का विकास होता है । और ज्यों- ज्यों साधक का संयम परिपक्व ( मजबूत ) होता जाता है त्यों – त्यों उसकी समाधि प्रज्ञा भी प्रकाशित अथवा मजबूत होती जाती है ।

 

संयम की सिद्धि द्वारा साधक अपने चित्त पर पूर्ण रूप से एकाधिकार कर लेता है । और जहाँ भी चाहे वहीं पर संयम का अभ्यास करके उस पदार्थ के स्वरूप को जान सकता है । इससे उसकी बुद्धि अलौकिक शक्तियों से परिपूर्ण हो जाती है । इस प्रकार अलौकिक बुद्धि से अनेकों सिद्धियों या विभूतियों की प्राप्ति होती है ।

साधक को योग मार्ग में प्राप्त होने वाली विभूतियों का आधार यह संयम ही है ।

 

यही हमारी बुद्धि को निरन्तर प्रकाशित करने का कार्य करता है । जिसके द्वारा हम किसी भी पदार्थ या वस्तु का वास्तविक स्वरूप जान पाते हैं ।

 

सामान्य मनुष्य का सामर्थ्य व शक्तियाँ सामान्य ही होती हैं । लेकिन संयम सिद्ध साधक की शक्तियाँ असमान्य व पूर्ण सामर्थ्य वाली होती हैं । उसमें सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थ को समझने की योग्यता आ जाती है ।

यही संयम की सिद्धि का फल होता है ।

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  1. ?Prnam Aacharya ji! IN THIS SUTRA the higher meaning of Sanyam emerge so beautifully ** Dhanyavad ** ओम राम ???

  2. ॐ गुरुदेव*
    संयम के लाभ की अति सुंदर
    व्याख्या प्रस्तुत की है आपने।इ
    सके लिए आपको
    हृदय से साधुवाद।

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