सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च ।। 49 ।।

 

 

शब्दार्थ :- सत्त्व ( बुद्धि ) पुरुष ( पुरुष अर्थात जीवात्मा को ) अन्यता ( अलग- अलग ) ख्यातिमात्रस्य ( जानने या मानने वाले का ) सर्व ( सभी ) भाव ( पदार्थों पर ) अधिष्ठातृत्वम् ( अधिकार प्राप्त हो जाता है ) ( और ) सर्व ( सभी का ) ज्ञातृत्वम् ( ज्ञान हो जाता है )

 

  

सूत्रार्थ :- बुद्धि और पुरुष ( जीवात्मा ) दोनों को अलग- अलग मानने वाले योगी का सभी पदार्थों पर अधिकार हो जाता है । और उसे सभी तत्त्वों अथवा पदार्थों की भी जानकारी हो जाती है ।

 

  

व्याख्या :-  इस सूत्र में बुद्धि व जीवात्मा की भिन्नता जानने वाले योगी को प्राप्त होने वाली सिद्धियों का वर्णन किया गया है ।

 

बुद्धि व पुरुष अर्थात जीवात्मा दो अलग- अलग पदार्थ हैं । इन दोनों को एक ही पदार्थ मानना अज्ञानता होती है । क्योंकि बुद्धि व आत्मा दोनों अलग- अलग पदार्थ होते हैं । योगी को विवेक ज्ञान के द्वारा इनकी भिन्नता का पता चलता है । विवेक ज्ञान से रज व तम नामक गुणों का अभाव हो जाता है और सत्त्वगुण के ही संस्कार बचते हैं । जिससे साधक के अज्ञान का अंधेरा हट जाता है और ज्ञान के प्रकाश का उदय हो जाता है ।

 

जैसे ही योगी को इनके अलग- अलग होने का ज्ञान हो जाता है । वैसे ही उसे दो प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति होती है । एक तो उसका सभी पदार्थों पर पूर्ण अधिकार हो जाता है और दूसरा उसे सभी पदार्थों का विशेष ज्ञान अथवा जानकारी हो जाती है ।

 

यह सिद्धियाँ विवेक ज्ञान पर आधारित होती हैं । जब योगी को विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है तब उसका सभी पदार्थों पर अधिकार हो जाता है और उसे सभी पदार्थों का ज्ञान भी हो जाता है ।

 

पहली सिद्धि में उसका सभी पदार्थों पर अधिकार हो जाता है । सभी पदार्थों का अर्थ यह नहीं है कि वह सम्पूर्ण तत्त्वों या पदार्थों पर विजय प्राप्त कर लेता है । बल्कि बुद्धि में सत्त्वगुण प्रधान होने से वह अपने शरीर, इन्द्रियों व मन आदि पर पूर्ण अधिकार या नियंत्रण प्राप्त कर लेता है । जिससे वह अपने अधीन सभी पदार्थों पर पूर्ण अधिकार या नियंत्रण कर लेता है । जैसे- मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त व इन्द्रियाँ आदि ।

 

दूसरी सिद्धि में कहा गया है कि योगी को सर्व ( सभी ) पदार्थों का ज्ञान अथवा जानकारी हो जाती है । यहाँ पर भी सर्व शब्द का अर्थ यह नहीं है कि योगी को सभी कालों में विद्यमान सभी पदार्थों का ज्ञान हो जाता है । बल्कि योगी को बहुत सारे पदार्थों का विशेष ज्ञान हो जाता है । जबकि सामान्य मनुष्य को उतना ज्ञान नहीं होता ।

 

हिन्दी भाषा में आप सभी ने विशेषण और उपमा पढ़े होंगे । विशेषण का अर्थ है किसी की विशेषताओं को बताना । और उपमा का अर्थ है किसी को किसी दूसरे के समान उपाधि देना । जैसे- चन्द्रमा जैसी आँखें, सूर्य जैसा तेज, पत्थर जैसा मजबूत आदि । योगसूत्र में भी महर्षि पतंजलि ने इन विशेषणों व उपमाओं का प्रयोग योगी के लिए बहुत बार किया है । जैसे- सभी पदार्थों का ज्ञाता, सभी पर पूर्ण अधिकार रखने वाला आदि । न ही तो किसी की आँखें चन्द्रमा जैसी हो सकती हैं, न ही किसी के पास सूर्य जैसा तेज हो सकता है, न ही कोई पत्थर के समान मजबूत हो सकता है, न ही किसी का सम्पूर्ण पदार्थों पर नियंत्रण हो सकता है और न ही कोई ऐसा है जिसे सभी पदार्थों का ज्ञान हो ।

 

लेकिन यह अवश्य हो सकता है कि हमारी आँखें बहुत ज्यादा सुन्दर हों, हमारा चेहरा अत्यंत तेजस्वी हो, हमारी मांशपेशियाँ अन्य लोगों के मुकाबले बहुत ज्यादा मजबूत हों, हमारे शरीर, इन्द्रियों, मन आदि पर हमारा अन्य लोगों की बजाय ज्यादा नियंत्रण हो और हम अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा जानते हों ।

 

जिस प्रकार हमारे बीच बहुत से ऐसे इन्सान होते हैं जो एक साथ बहुत सारे विषयों की बहुत अच्छी जानकारी रखते हैं । उन सभी को हम अलग ही दृष्टि से देखते हैं । और उनके बारे में यही कहते हैं कि उस इन्सान को सभी विषयों का सही ज्ञान अथवा जानकारी है । लेकिन उसे भी सभी पदार्थों का सटीक ज्ञान नहीं होता । क्योंकि सबकुछ जानने वाला तो एक ईश्वर अर्थात परमात्मा ही हैं । जिसे सर्वज्ञ कहा जाता है ।बाकी हम सभी ज्ञान की ओर निरन्तर अग्रसर अर्थात जिज्ञासु हैं ।

 

 

विशेष :- इन दोनों ही सिद्धियों को  विशोका नामक सिद्धि कहते हैं । इस विशोका नामक सिद्धि को प्राप्त करने पर योगी के अविद्या आदि क्लेश क्षीण अर्थात अत्यन्त कमजोर या निर्बल हो जाते हैं । जिससे वह सभी क्लेशों से मुक्त होकर आनन्दपूर्वक विचरण करता ( घूमता ) है ।

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  1. प्रणाम आचार्यजी । बहुतहि सुन्दर सूत्रका स्पष्टीकरण किया है । बहुत हि सरलतासे सूत्र को समझाया है । आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

  2. प्रणाम आचार्य जी । बहुतहि सरलतासे बहुत हि सुन्दर सूत्र का स्पष्टीकरण किया है । आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

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