ततो मनोजवित्वं विकरण भाव: प्रधानजयश्च ।। 48 ।।

 

शब्दार्थ :- तत: ( उस अर्थात उस इन्द्रियों को जीतने से ) मनोजवित्वं ( शरीर की गति मन की भाँति होती है ) विकरणभाव: ( बिना शरीर के कहीं भी इन्द्रियों से कार्य करना ) ( और ) प्रधानजय: ( प्रकृति से बने सभी भेदों या अंगों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है )

 

सूत्रार्थ :- उन इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त करने से योगी का शरीर मन की तरह ही तेज गति वाला, बिना शरीर के इन्द्रियों से काम करने वाला और प्रकृति से बने सभी अंगों पर अधिकार प्राप्त कर लेता है ।

 

 

व्याख्या :-  इस सूत्र में इन्द्रियों पर अधिकार प्राप्त करने के फल को बताया गया है ।

 

पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने से योगी को तीन प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । जो इस प्रकार हैं :-

 

  1. मनोजवित्व
  2. विकरणभाव
  3. प्रधानजय

 

  1. मनोजवित्व :- मनोजवित्व का अर्थ है शरीर का अत्यंत तेज गति वाला अर्थात मन की गति के समान गति वाला बन जाना । इस सिद्धि से योगी का शरीर बहुत स्फूर्तिवान बन जाता है । जिसके कारण उसमें अत्यंत तेज गति से चलने व दौड़ने की ताकत आ जाती है । मन की गति सबसे तेज कही गई है । क्योंकि हमारा मन एक पल में कहीं भी पहुँच सकता है । वो भी बिना किसी रुकावट के । इस सिद्धि का यह अर्थ नहीं है कि शरीर भी मन की ही गति से दौड़े या भागेगा । यह एक संज्ञा होती है । जैसे हम किसी मजबूत शरीर वाले व्यक्ति को देखकर उसे वज्र जैसे शरीर वाला कह देते हैं । इसका अर्थ यह तो नहीं होता कि उसका शरीर वज्र की भाँति ही कठोर हो । बल्कि इसका अर्थ है कि उसके शरीर की मांशपेशियाँ बहुत ज्यादा मजबूत होती हैं । इसी प्रकार योगी के शरीर की गति भी सामान्य व्यक्तियों से ज्यादा हो जाती है ।
  2. विकरणभाव :- विकरण भाव का अर्थ है बिना शरीर के इन्द्रियों द्वारा कार्य करना । मेरा ऐसा मानना है कि इन्द्रियाँ शरीर को छोड़कर कार्य करने में शायद समर्थ नहीं हैं । बल्कि इस सिद्धि से इन्द्रियों में विशेष योग्यता या सामर्थ्य आ जाता है । जिससे योगी को दूर की ध्वनि या दृश्य आदि को सुनने व देखने अथवा महसूस करने की क्षमता आ जाती है । क्योंकि उस समय योगी अपनी सभी इन्द्रियों पर पूर्ण रूप से अधिकार प्राप्त कर चुका होता है । इसलिए वह इन्द्रियों से सामान्य की अपेक्षा ज्यादा कार्य करवाने में समर्थ हो जाता है ।
  3. प्रधानजय :- प्रधान जय का अर्थ है प्रकृति व उससे सम्बंधित सभी अंगों या भेदों पर योगी का पूर्ण अधिकार हो जाना । मेरा मानना है कि इसके अर्थ भी यह नहीं है कि योगी प्रकृति व उसके पदार्थों को अपने अधिकार में कर लेता है । बल्कि योगी प्रकृति से उत्पन्न महत, अहंकार, मन, महाभूतों, तन्मात्राओं व इन्द्रियों के ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है । जिससे वह जिस गुण की प्रधानता चाहता है उसे ही वह अपने अन्दर उत्पन्न करने में समर्थ हो जाता है । इस सिद्धि का वर्णन हम इसी पाद के सूत्र संख्या 44 में कर चुके हैं । जिसमें पंच महाभूतों में संयम करने के फल की चर्चा की गई थी ।

 

इस प्रकार इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने से योगी को मनोजवित्व, विकरण भाव व प्रधान जय नामक सिद्धियों की प्राप्ति होती है ।

 

विशेष :- इन तीनों सिद्धियों को मधुप्रतीका अथवा मधु प्रतीक कहा जाता है ।

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  1. ??प्रणाम आचार्य जी! सुन्दर वण॔न! आपका बहुत बहुत धन्यवाद! ओम ?

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