ग्रहणस्वरूपास्मितान्वयार्थवत्त्वसंयमाद् इन्द्रियजय: ।। 47 ।।

 

शब्दार्थ :- ग्रहण ( किसी को अनुभूत या महसूस करना ) स्वरूप ( कार्य या लक्षण ) अस्मिता ( सूक्ष्म अवस्था ) अन्वय ( सत्त्व, रज व तम से निर्मित सूक्ष्मतर अवस्था ) अर्थवत्त्व ( उद्देश्य अथवा प्रयोजन ) संयमाद् ( संयम करने से ) इन्द्रिय ( इन्द्रियों पर ) जय: ( विजय प्राप्त होती है )

 

 

सूत्रार्थ :- इन्द्रियों की ग्रहण, स्वरूप, अस्मिता, अन्वय व अर्थवत्त्व अवस्थाओं में संयम करने से योगी सभी इन्द्रियों पर विजय ( पूर्ण अधिकार ) प्राप्त कर लेता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में योगी द्वारा इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त करने की बात कही गई है ।

 

जिस प्रकार पंच महाभूतों की पाँच अवस्थाएँ बताई गई थी । उसी प्रकार यहाँ पर इन्द्रियों की भी पाँच अवस्थाएँ बताई गई हैं । जिनमें संयम करने से योगी अपनी सभी इन्द्रियों पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है ।

 

यह पाँच अवस्थाएँ निम्न हैं :-

  1. ग्रहण :- यह इन्द्रियों की सबसे पहली अवस्था होती है । इसका मुख्य कार्य अलग- अलग इन्द्रियों से सम्बंधित कार्यों को महसूस करना होता है । जैसे- किसी वस्तु अथवा पदार्थ को देखना, सुनना, सूँघना व चखना आदि ।
  2. स्वरूप :- यह इनकी दूसरी अवस्था होती है । यह इनकी स्वभाविक अवस्था कही जाती है जिसमें इनके अलग – अलग कार्यों या लक्षणों से इसकी पहचान होती है ।
  3. अस्मिता :- यह इनकी सूक्ष्म अवस्था होती है । जिससे इन सभी इन्द्रियों की उत्पत्ति अर्थात उत्पन्न होती है ।
  4. अन्वय :- यह इन सब की सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अवस्था होती है । जो सत्त्व, रज व तम नामक गुणों से बनी होती है । जिसमें सत्त्व गुण प्रकाश, रजोगुण क्रियाशील व तमोगुण जड़ता का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
  5. अर्थतत्त्व :- यह इनकी अन्तिम अवस्था है । इसमें अर्थ का मतलब होता है उद्देश्य अथवा प्रयोजन । हर किसी वस्तु या पदार्थ का कोई न कोई उद्देश्य या प्रयोजन अवश्य ही होता है । बिना प्रयोजन के किसी की भी उत्पत्ति नहीं होती । यहाँ पर इन सभी इन्द्रियों व मन का उद्देश्य भोग अर्थात सभी पदार्थों का उपयोग करना व मोक्ष प्राप्त करना । यह दोनों ही प्रयोजन होते हैं ।

 

इस प्रकार जब योगी इन्द्रियों की इन पाँचों अवस्थाओं में संयम कर लेता है । तब उसका सभी इन्द्रियों व मन पर पूर्ण अधिकार हो जाता है । इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होने पर साधक इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करके साधना में सिद्धि प्राप्त करता है ।

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  1. प्रणाम आचार्य जी । सूत्र के शब्दार्थ सुन्दर एक्सप्लेन किये है जिससे सूत्र आसानीसे स्मरण रहते है । सूत्र कि व्याख्या भी बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया है । आपका बहुत धन्यवाद । जय श्री कृष्ण हरी ।

  2. ??प्रणाम आचार्य जी! यह वण॔न बहुत ही सुंदर है! आपका बहुत बहुत धन्यवाद! ओम ?

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