बहिरकल्पितावृत्तिर्महाविदेहा तत: प्रकाशावरणक्षय: ।। 43 ।।
शब्दार्थ :- बहिरकल्पिता ( शरीर के साथ सम्बन्ध रहते हुए बाहर के ) वृत्ति: ( पदार्थों में वृत्ति अर्थात व्यापार का होना ) महाविदेहा ( महाविदेहा नामक धारणा है ) तत: ( उसके द्वारा ) प्रकाश ( प्रकाश अर्थात ज्ञान पर पड़ा ) आवरण ( पर्दा ) क्षय: ( दूर हो जाता है )
सूत्रार्थ :- शरीर के साथ सम्पर्क होते हुए भी मन का बाहर के पदार्थों के साथ सम्बन्ध होता है । वह महाविदेहा नामक धारणा कहलाती है । इस धारणा से ज्ञान के प्रकाश पर पड़ा पर्दा दूर हो जाता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में महाविदेहा नामक धारणा के फल का वर्णन किया गया है ।
यह विदेहा नामक धारणा दो प्रकार की होती है । एक कल्पित ( मन की शरीर के अन्दर स्थिति ) और दूसरी अकल्पित ( मन की शरीर के बाहर की स्थिति ) । मन के शरीर में रहते हुए उसका बाहर के पदार्थों से जो क्रियाकलाप या व्यापार होता है । वह कल्पित विदेहा कहलाती है ।
इसके विपरीत जब मन की शरीर से बाहर अर्थात मन शरीर के अधिकार से बाहर हो जाता है । और बाह्य पदार्थों के साथ क्रियाकलाप अथवा व्यापार करता है । वह अकल्पित विदेहा कहलाती है ।
इन दोनों को क्रमशः शरीरी ( कल्पित ) और अशरीरी ( अकल्पित ) भी कहा जाता है ।
योगी इन दोनों धारणाओं में सबसे पहले कल्पित विदेहा धारणा को ही सिद्ध करना पड़ता है । उसके बाद इस कल्पित धारणा के द्वारा ही अकल्पित धारणा को सिद्ध किया जाता है ।
इसी के द्वारा योगी को दूसरे शरीर में प्रवेश करने की सिद्धि प्राप्त होती है । जैसे ही योगी की यह अकल्पित विदेहा धारणा सिद्ध हो जाती है । वैसे ही योगी की बुद्धि पर पड़ने वाले रज एवं तम का पर्दा स्वयं ही हट जाता है । जिससे योगी के क्लेश- कर्म और विपाक नष्ट हो जाते हैं ।
जब योगी का मन शरीर में रहते हुए ही बाहर की वस्तुओं या पदार्थों में केवल भावना मात्र से ही धारणा करता है तो यह कल्पित विदेहा होती है । इसमें बाहर के पदार्थों व वस्तुओं के बारे में मात्र सोचना । इसी कल्पित विदेहा धारणा को ही आधार बनाकर ही योगी अकल्पित विदेहा को सिद्ध करता है । बिना कल्पित के अकल्पित को सिद्ध नहीं किया जा सकता ।
जब योगी अपने मन को शरीर से बाहर निकाल कर बाहर की ही वस्तुओं पर धारणा या उनसे सम्पर्क स्थापित करता है । तब वह अकल्पित विदेहा धारणा कहलाती है । जैसे- व्यक्ति अपने मन को शरीर से अलग मानकर अपने आप को कहीं बाहर किसी वस्तु या पदार्थ पर स्थापित कर देता है । और उस समय वैसा ही अनुभव करता है जैसा कि वह वहाँ पर प्रत्यक्ष रूप से महसूस करता । यह अकल्पित विदेहा धारणा होती है ।
इस अकल्पित विदेहा धारणा में मन के बाहर निकलने की बात कही गई है । हमारा शरीर स्थूल रूप में होता है । जबकि मन सूक्ष्म रूप में । जो सूक्ष्म होता है वह कभी भी कहीं भी पहुँच सकता है । इसके लिए उसे किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं रहती । मन एक उभयात्मक इन्द्री है । जो संकल्प- विकल्प का कार्य करता है । साथ ही यह कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों दोनों के साथ मिलकर अपना कार्य करता है ।
??प्रणाम आचार्य जी! बहुत ही सुन्दर वण॔न! आपका बहुत बहुत धन्यवाद! ??
Parnam guru ji
Thank you sir
Dhanyawad
Guru ji nice explain about mahavidhaha dharna.