श्रोत्राकाशयो: सम्बन्धसंयमाद् दिव्यं श्रोत्रम् ।। 17 ।।

 

शब्दार्थ :- श्रोत्र ( कान और ) आकाशयो: ( आकाश ) सम्बन्ध ( दोनों के आपसी सम्बन्ध में ) संयमात् ( संयम करने से ) श्रोत्रम् ( दोनों कानों में )      दिव्यं ( दिव्यता अर्थात सूक्ष्म शब्दों को सुनने की क्षमता आती है )

 

 

सूत्रार्थ :- कानों एवं आकाश के आपसी सम्बन्ध में संयम करने से योगी के दोनों कानों में दिव्यता आ जाती है । जिससे वह सूक्ष्म से सूक्ष्म शब्दों को भी आसानी से सुनने में समर्थ हो जाता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में कानों व आकाश के आपसी सम्बन्ध में संयम करने के फल को बताया है ।

 

पहले हम श्रोत्र और आकाश को जान लेते हैं । उसके बाद हम इनके आपसी सम्बन्ध व इनकी उपयोगिता को जानेंगे ।

 

श्रोत्र संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ कान होता है । जिनके द्वारा हम सुनते हैं । यह एक ज्ञानेन्द्रि है । जो हमें सुनने का ज्ञान करवाती है । कुल पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं । जो इस प्रकार हैं – कान, त्वचा, आँख, जिव्हा व नासिका । यदि कान नामक ज्ञानेंद्रि न हो तो हम कुछ भी नहीं सुन सकते । इसलिए जो भी कुछ हम सुन रहे हैं । वह सब कान के माध्यम से सम्भव हो पा रहा है ।

 

यह तो हुई कानों की बात । अब हम चर्चा करते हैं आकाश की । आकाश हमारे पाँच महाभूतों में से एक है । जो विकास अर्थात उत्पत्ति के क्रम में सबसे पहले आता है । पाँच महाभूत इस प्रकार हैं – आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी ।

जिन शब्दों को हम कानों से सुनते हैं उन सभी का आधार आकाश ही होता है । यदि आकाश नामक महाभूत न हो तो हम कानों के होते हुए भी कोई ध्वनि या शब्द नहीं सुन सकते । छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी सभी प्रकार की ध्वनि अर्थात आवाज का आधार यह आकाश नामक महाभूत ही है ।

 

अब हम इनकी तन्मात्रा का भी वर्णन करते हैं । आकाश महाभूत की तन्मात्रा शब्द होती है । शब्द का अर्थ है कोई भी अक्षर । जो भी ध्वनि या आवाज हम सुनते हैं । वह एक शब्द ही होता है ।

 

इसका क्रम इस प्रकार होता है- आकाश, ( महाभूत ) शब्द ( तन्मात्रा ) और कान ( ज्ञानेंद्रि ) ।

 

हम किसी भी ध्वनि को इन तीनों ( आकाश, शब्द व कान ) के द्वारा ही सुन पाते हैं ।

 

सूत्र में कहा गया है कि जब योगी आकाश व कान इन दोनों के आपसी सम्बन्ध में संयम कर लेता है तो उसके कान दिव्य शब्दों को सुनने में समर्थ ( योग्य ) हो जाते हैं । यहाँ दिव्यता का अर्थ है जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म शब्द होते हैं । जिन्हें सामन्य तौर से नहीं सुना जा सकता । उन सभी प्रकार के शब्दों को कान व आकाश के सम्बंध में संयम करने के बाद आसानी से सुना जा सकता है ।

 

यह दिव्य शब्द केवल वही मनुष्य सुन सकता है जो अबधिर ( जो बहरा नहीं है  ) होता है । जो व्यक्ति बधिर ( बहरा ) होता है । उसे यह सिद्धि प्राप्त नहीं होती ।

 

विशेष :- कुछ ध्वनि ऐसी होती हैं जो सामान्य मनुष्य नहीं सुन पाते हैं । लेकिन कुछ पशु व पक्षी उन ध्वनियों को आसानी से सुन लेते हैं । और उसी प्रकार का बर्ताव शुरू कर देते हैं ।

 

जैसे :-  मानसून आने से पहले पक्षी चहचहाने लगते हैं । भूकम्प आदि के आने से पहले कुत्ते व बिल्लियाँ अजीब प्रकार से बर्ताव करने लगते हैं । सभी पशु व पक्षियों में सूक्ष्म शब्दों को सुनने की क्षमता जन्मजात होती है । लेकिन यह क्षमता मनुष्य में जन्मजात नहीं होती । बल्कि मनुष्य योग साधना द्वारा इसे प्राप्त कर सकता है ।

 

इसलिए जो योगी कान व आकाश के सम्बन्ध में संयम कर लेता है । उसको भी यह योग्यता प्राप्त हो जाती है ।

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  1. प्रणाम आचार्य जी! आकाश, श्रोत व शब्द की इतनी सुन्दर व्याख्या इस सूत्र के माध्यम से इनके महत्व का ज्ञान कराने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद आचार्य जी! ओम!

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