सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तासंकीर्णयो: प्रत्ययाविशेषो भोग: परार्थत्वात् स्वार्थसंयमात्पुरुषज्ञानम् ।। 35 ।।

 

शब्दार्थ :- सत्त्व ( बुद्धि और ) पुरुषयो: ( पुरुष दोनों में ) अत्यंत ( अत्यधिक या बहुत ज्यादा ) असंकीर्णयो: ( भिन्नता है ) प्रत्यय ( इन दोनों कारकों को ) अविशेष: ( भिन्न- भिन्न अर्थात अलग- अलग न मानना ) भोग: ( भोग है ) परार्थत्वात् ( उस बुद्धि के परार्थ अर्थात विपरीत ज्ञान से अलग ) स्वार्थ ( जो भोग से अलग जो पुरुष के विषय में ) संयमात् ( संयम करने से ) पुरुषज्ञानम् ( उस पुरुष अर्थात आत्मा का ज्ञान हो जाता है )

 

 

सूत्रार्थ :- बुद्धि और पुरुष दोनों एक दूसरे से बिलकुल भिन्न अर्थात अलग- अलग होते हैं । इन दोनों को अभिन्न अर्थात एक ही मानना भोग कहलाता है । जिसका कारण बुद्धि का विपरीत ज्ञान है । इस अवस्था से अलग स्वार्थ अर्थात केवल पुरुष के ही ज्ञान में संयम करने से आत्मा का ज्ञान होता है ।

 

 

व्याख्या :- इस सूत्र में पुरुष में संयम करने के फल को बताया गया है ।

 

बुद्धि और पुरुष दो अलग- अलग पदार्थ हैं । यहाँ सत्त्व शब्द से बुद्धि को सम्बोधित किया गया है । बुद्धि व पुरुष एक दूसरे से सर्वथा अर्थात पूरी तरह से भिन्न हैं । बुद्धि जड़ ( निर्जीव ) पदार्थ है । जिसकी उत्त्पत्ति सत्त्व, रज और तम नामक गुणों से हुई है । जबकि पुरुष अर्थात आत्मा किसी भी पदार्थ या तत्त्व से उत्पन्न नहीं होती है । यह शुद्ध चेतन स्वरूप है । ये दोनों एक दूसरे से इस प्रकार अलग – अलग हैं । जिस प्रकार पूर्व और पश्चिम दिशा एक दूसरी से बिलकुल अलग होती हैं ।

 

बुद्धि व पुरुष दोनों को एक पदार्थ मानने को ही भोग कहा गया है । मनुष्य इस भोग के फलस्वरूप ही बुद्धि व पुरुष को एक मानने की भूल करता है ।

 

इस भोग के अतिरिक्त दूसरी स्वार्थ अवस्था भी होती है । जिसमें केवल आत्मा के स्वरूप का ही ज्ञान होता है । जब योगी इस पुरुष में संयम करता है तो उसे पुरुष अर्थात आत्मा का ज्ञान हो जाता है । या ये कहें कि योगी को आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है ।

 

यही पुरुष में संयम करने का फल है ।

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  1. ॐ गुरुदेव*
    पुरुष में संयम के फल की
    अति सुन्दर व्याख्या।
    धन्यवाद्।

  2. प्रणाम आचार्य जी! सुन्दर सूत्र! उत्तम वण॔न! धन्यवाद

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