हृदये चित्तसंवित् ।। 34 ।।
शब्दार्थ :- हृदये ( हृदय अर्थात दिल में संयम करने से ) चित्त ( चित्त के ) संवित् ( स्वरूप का ज्ञान होता है )
सूत्रार्थ :- हृदय अर्थात दिल में संयम करने से चित्त के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में हृदय प्रदेश में संयम करने से मिलने वाले फल को बताया गया है ।
सामान्य रूप से हृदय हमारे शरीर में रक्त की आपूर्ति करता है । हृदय ही वह अवयव अथवा अंग है जो रक्त की शुद्धि करके हमें जीवन प्रदान करता है । यदि हृदय प्रदेश में किसी भी प्रकार की कोई रुकावट आती है तो वह मनुष्य के जीवन के लिए घातक सिद्ध होती है । हृदय का सुचारू अर्थात सही तरीके से काम करना हमें जीवन प्रदान करता है । परन्तु यह तो हृदय का वह कार्य है जिसे सभी लोग जानते हैं । इसी हृदय में जब योगी संयम करता है तो क्या होता है ? वो सब इस सूत्र में बताया गया है ।
जब योगी अपने हृदय प्रदेश अर्थात दिल में संयम कर लेता है तो उसे अपने चित्त के सही स्वरूप का ज्ञान हो जाता है ।
हृदय को चित्त का आश्रय- स्थल माना गया है । अर्थात हमारा चित्त हृदय प्रदेश में निवास करता है । हृदय को चित्त का घर कहा गया है । जब योगी इस आश्रय स्थल अर्थात हॄदय में संयम करता है तो उसे चित्त के सही स्वरूप का ज्ञान हो जाता है ।
जैसे- चित्त क्या है ? चित्त की वृत्तियों का क्या स्वरूप है ? ये सभी वृत्तियाँ कैसे कार्य करती हैं ? क्लिष्ट व अक्लिष्ट वृत्तियों में क्या भेद है ? इस चित्त की कितनी अवस्थाएँ हैं ? किस अवस्था में चित्त का कैसा भाव रहता है ? किस प्रकार चित्त की निरुद्ध अवस्था तक पहुँचा जा सकता है ? किस प्रकार चित्त की वृत्तियों का निरोध किया जा सकता है ? आदि – आदि ।
इस प्रकार जब एक योगी हृदय प्रदेश में संयम कर लेता है तो वह चित्त के सही स्वरूप को समझ लेता है । जिससे योगी को चित्त की वृत्तियों का निरोध करने में सहायता मिलती है ।
Guru ji nice explain about benefit of concentration in heart.
Pranaam Sir! ?? thank you very much
Prnam Aacharya ji! THIS SUTRA IS SO BEAUTIFUL THAT AND VERY IMPORTANT FOR RESTRAIN CHITT VRITTI.OM
???Dhnyavad ??
Thank you sir
ॐ गुरुदेव*
हृदय में संयम के फल का बहुत ही सुन्दर व्याख्या। आप
ऐसे ही हम समस्त योगार्थियों का मार्गदर्शन करते रहें।
आपका बहुत बहुत आभार।