प्रातिभाद् वा सर्वम् ।। 33 ।।
शब्दार्थ :- वा ( या ) प्रातिभाद् ( प्रातिभ नामक ज्ञान के उत्पन्न होने से ) सर्वम् ( सभी पदार्थों अथवा सिद्धियों का ज्ञान हो जाता है )
सूत्रार्थ :- प्रातिभ नामक ज्ञान के उत्पन्न होने से योगी को सभी पदार्थों अथवा सिद्धियों की जानकारी प्राप्त हो जाती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में प्रातिभ नामक ज्ञान के उत्पन्न होने से सभी पदार्थों की जानकारी होने की बात कही गई है ।
यहाँ पर प्रातिभ नामक ज्ञान की चर्चा की गई है न कि संयम की । बाकी के सूत्रों में संयम का प्रयोग किया गया है । लेकिन इस सूत्र में बताया गया है कि केवल प्रातिभ नामक ज्ञान के उत्पन्न होने से ही योगी सबकुछ जानने वाला बन जाता है ।
अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर यह प्रातिभ नामक ज्ञान होता क्या है ?
भाष्यकार इस बात को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि जो ज्ञान विवेक से जनित ( उत्पन्न ) होता है । यह प्रातिभ ज्ञान उस ज्ञान से ठीक पहले होने वाला ज्ञान होता है । जैसे सूर्य के उदय होने से ठीक पहले उसकी लालिमा अर्थात उसकी प्रभा समस्त अंधकार को हटा देती है । और हम सब वस्तुओं को आसानी से देख पाते हैं । लेकिन उस समय वह सूर्य का प्रकाश नहीं होता बल्कि प्रकाश से पहले की लालिमा होती है ।
जिस प्रकार अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य की प्रभा ( लालिमा ) ही पर्याप्त होती है । उसके लिए सूर्य के प्रचण्ड प्रकाश की आवश्यकता नहीं होती । ठीक उसी प्रकार योगी को प्रातिभ नामक ज्ञान की प्राप्ति होने से ही वह सबकुछ जान लेता है । इसलिए उसे किसी प्रकार के संयम की आवश्यकता नहीं होती । वह बिना संयम किए ही बहुत सारे विषयों को आसानी से समझ लेता है ।
मात्र प्रातिभ ज्ञान के प्राप्त होने से ही योगी सबकुछ जानने वाला हो जाता है ।
इस प्रातिभ ज्ञान को एक प्रकार की सिद्धि ही माना जाता है । जो योगी को बहुत सारे अभ्यास व अनुभव से प्राप्त होती है ।
Nayee jankari prapt huyee.
Dhanyawad.
Pranaam Sir! ??thanks for clearing our doubts.
Guru ji nice explain about paratib.
Thank you sir
??प्रणाम आचार्य जी! प्रातिभ ज्ञान को सूय॔ की लालिमा से तुलना करके इस ज्ञान का सराहनीय वण॔न आपने प्रस्तुत किया है जो सहज ही ग्रहण करने योग्य है । आपको बार-बार प्रणाम व धन्यवाद ! ओम सुंदर! ???