तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।। 3 ।।
शब्दार्थ :- तदेव ( तब वह अर्थात ध्यान ही ) अर्थमात्र ( केवल उस वस्तु के अर्थ या स्वरूप का ) निर्भासं ( आभास करवाने वाला ) स्वरूपशून्यम् ( अपने निजी स्वरूप से रहित हुआ ) इव ( जैसा ) समाधिः ( समाधि होती है । )
सूत्रार्थ :- जब योगी साधक अपने निजी स्वरूप को भूलकर केवल ध्यान के ध्येय ( लक्ष्य ) में ही लीन हो जाता है । तब वह अवस्था समाधि कहलाती है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में समाधि को परिभाषित किया गया है ।
ध्यान करते हुए तीन भावों की प्रमुख रूप से विद्यमानता होती है –
पहला होता है ध्यातृ / ध्याता भाव, दूसरा होता है ध्येय भाव और तीसरा होता है ध्यान का भाव । अब यहाँ पर इन सभी भावों का संक्षिप्त रूप से वर्णन करते हैं ।
- ध्यातृ / ध्याता भाव :- ध्यातृ का अर्थ है ध्यान करने वाला । अर्थात जिसके द्वारा ध्यान को किया जा रहा है । वह
ध्यातृ अर्थात साधक कहलाता है ।
- ध्येय भाव :- ध्येय का अर्थ होता है लक्ष्य । अर्थात जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ध्यान किया जा रहा है । उसे ध्यान का ध्येय अर्थात लक्ष्य कहते हैं ।
- ध्यान :- ध्यान का अर्थ है जिस साधन के द्वारा साधना का सम्पादन किया जा रहा है । अर्थात वह मार्ग जिसके करने से लक्ष्य तक पहुँचा जाता है । या वह क्रिया जिसके द्वारा लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है । वह ध्यान कहलाता है ।
ऊपर वर्णित भावों में से जब योगी साधक ध्याता अर्थात अपने निजी स्वरूप को भूलकर केवल ध्येय अर्थात लक्ष्य में आरूढ़ हो जाता है । तब उस ध्यान की अवस्था को समाधि कहते हैं ।
जब तक साधक के भीतर यह भाव रहेगा कि मेरे द्वारा ध्यान किया जा रहा है । तब तक समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती । लेकिन जैसे ही साधक अपने ध्याता भाव अर्थात अपने निजी स्वरूप को मिटाकर केवल लक्ष्य को ही आत्मसात कर लेता है । वैसे ही उसे समाधि की प्राप्ति हो जाती है ।
सामान्य तौर पर ध्यान की उन्नत अवस्था को समाधि कहते हैं । और ध्यान की उन्नत अवस्था तभी आती है जब साधक अपने ध्याता भाव को छोड़कर केवल लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है ।
उदाहरण स्वरूप :- भ्रमर ( भंवरा ) एक प्रकार का कीट होता है । जिसे कमल के फूल का रस बहुत प्रिय होता है । और कमल के फूल की विशेषता होती है कि वह दिन के समय खिलता है और अँधेरा होते ही बन्द हो जाता है । जब भ्रमर कीट कमल के फूल का रस चूसने के लिए उसके अन्दर घुसता है तो वह उस रस में इतना तल्लीन ( पूरी तरह से लीन होना ) हो जाता है कि उसे इस बात का भी आभास नहीं रहता कि कब अँधेरा हुआ और कब वह कमल का फूल बन्द हो गया । इस प्रकार उस भ्रमर को फूल के रस के अतिरिक्त किसी प्रकार का कोई ध्यान नहीं रहता है । और इस वजह से वह स्वयं भी फूल के अन्दर ही बन्द हो जाता है ।
ठीक इसी प्रकार जब ध्याता ( ध्यान करने वाला ) अपने स्वरूप को पूरी तरह से भूलाकर केवल अपने लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से समर्पित होता है । तब उस स्थिति को समाधि की अवस्था कहते हैं । इस अवस्था में योगी साधक को लक्ष्य के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता है । यहाँ तक कि वह स्वयं के स्वरूप को भी भूल जाता है ।
?प्रणाम आचार्य जी! इस सुत्र मे ध्यान के स्वरूप का बहुत ही सुंदर वण॔न आपने बताया है इसके लिए आपका बहुत आभार आचार्य जी!धन्यवाद! ओ3म् ???
Thanku sir??
Thanks guru ji
Your Work according nature is good job ,,,,,,,so many congratulations
ॐ गुरुदेव*
योग के लक्ष्य परम समाधि की
अति सुंदर विश्लेषण किया है आपने।
आपको हृदय से बहुत _बहुत आभार !
ॐ गुरुदेव*
योग के परम लक्ष्य समाधि की
अति सुंदर विश्लेषण किया है आपने।
आपको हृदय से बहुत _बहुत आभार !
Thank you sir
Best example and explanation about samadi guru ji.