तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।। 2 ।।
शब्दार्थ :- तत्र ( जहाँ पर अर्थात जिस स्थान पर धारणा का अभ्यास किया गया है उसी स्थान पर ) प्रत्यय ( ज्ञान या चित्त की वृत्ति की ) एकतानता ( एकतानता अर्थात एकरूपता बनी रहना ही ) ध्यानम् ( ध्यान है । )
सूत्रार्थ :- जहाँ जिस स्थान पर भी धारणा का अभ्यास किया गया है । वहाँ पर उस ज्ञान या चित्त की वृत्ति की एकरूपता या उसका एक समान बने रहना ही ध्यान कहलाता है ।
व्याख्या :- इस सूत्र में ध्यान के स्वरूप को परिभाषित किया गया है ।
साथ ही इसे ध्यान की परिभाषा के रूप में भी प्रयोग किया जाता है ।
जिस भी आन्तरिक या बाह्य स्थान पर धारणा का अभ्यास किया गया है । उस स्थान पर ज्ञान या चित्त की वृत्ति का एक समान या उसकी एकरूपता बनी रहना ही ध्यान कहलाता है । उस ज्ञान के बीच में किसी भी प्रकार की कोई रुकावट या बाधा नहीं उत्पन्न होनी चाहिए । अर्थात जो ज्ञान या वृत्ति की स्थिति बनी हुई है उसमें किसी अन्य ज्ञान या वृत्ति का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए । उस स्थान पर की गई धारणा की निरन्तरता बनी रहनी चाहिए ।
इस प्रकार जब वह धारणा रूपी ज्ञान का अखण्ड ( कभी भी न टूटने वाला ) प्रवाह बना रहना अनिवार्य है । तभी वह धारणा की स्थिति ध्यान में बदलती है ।
इसे हम एक उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करते हैं ।
जिस प्रकार हम तेल को एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डालते हैं तो ऊपर से नीचे तक तेल एक धार में बहता है । उसमें किसी भी प्रकार का कोई विघ्न या बाधा नहीं होती है । वह तेल निरन्तरता व एकतानता ( एकरूपता ) के साथ ऊपर से नीचे वाले बर्तन में इकठ्ठा हो जाता है ।
जिस प्रकार उस तेल की धारा अखण्ड रूप से बह रही होती है । बिना किसी बाधा के । उसी प्रकार धारणा वाले स्थान पर धारणा का निरन्तर बिना किसी अवरोध के बना रहना ध्यान कहलाता है ।
?प्रणाम आचार्य जी! इस सुत्र मे आपने ध्यान का बहुत ही सुंदर वण॔न प्रस्तुत किया है, आपका बहुत बहुत धन्यवाद ! ???
Thanku sir ??
ॐ गुरुदेव*
ध्यान की बहुत सुंदर व्याख्या
की है आपने। आपका अति आभार।
Nice explanation about who we reach dhayna yoga sutras seven step.
Thank you sir
Very nice guru ji
धन्यवाद सर जी ??
Thanks sir.