शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपातीधर्मी ।। 14 ।।

 

शब्दार्थ :- शान्त ( अतीत या भूतकाल में ) उदित ( वर्तमान में ) अव्यपदेश्य ( भविष्य में ) धर्मानुपाती ( सभी धर्मों में विद्यमान रहने वाला ) धर्मी ( वह धर्मी होता है )

 

सूत्रार्थ :- किसी भी पदार्थ के अतीत, वर्तमान व भविष्य धर्मों में सदा विद्यमान रहने वाला वह धर्मी होता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में पदार्थ के मूल तत्त्व अर्थात धर्मी के स्वरूप को बताया गया है ।

धर्म का अर्थ है किसी वस्तु या पदार्थ के गुण अथवा उसकी विशेषताएँ । और धर्मी का अर्थ है उस वस्तु या पदार्थ का आधार या उसका मूल तत्त्व ।

 

धर्मी अर्थात पदार्थ का मूल तत्त्व उस पदार्थ में सदैव उपस्थित रहता है । धर्मी के न रहने पर तो पदार्थ की सत्ता ही समाप्त हो जाती है ।

 

यहाँ पर धर्म के तीन प्रकारों का वर्णन किया गया है । जो इस प्रकार हैं –

  1. शान्त
  2. उदित
  3. अव्यपदेश्य ।

 

  1. शान्त :- जो अपना कार्य पूरा कर चुके हैं, उन्हें शान्त धर्म कहते हैं । अर्थात जो भी वस्तु या पदार्थ अपना- अपना कर्म पूरा करके समाप्त हो चुके हैं । उनको शान्त धर्म कहा जाता है । जैसे- मिट्टी का घड़ा या मिट्टी का मकान जब एक समय के बाद नष्ट हो जाते हैं । तब वह अपने वास्तविक स्वरूप में आ जाते हैं । ठीक वैसे ही जैसे बर्फ के पिघलने पर उसका वापिस पानी बन जाता है । इन्हें शान्त धर्म कहते हैं ।

 

  1. उदित :- जो वस्तु या पदार्थ वर्तमान समय में अपनी सेवाएं दे रहे हैं । वह उदित धर्म कहलाते हैं । अर्थात जिन – जिन पदार्थों का हम उपयोग कर रहे हैं । वह सभी उदित धर्म कहलाते हैं । जैसे – मिट्टी के घड़े व मिट्टी के मकान का प्रयोग करना । या बीज का अंकुरित होकर वृक्ष बन जाना आदि ।

 

  1. अव्यपदेश्य :- जो वस्तु या पदार्थ अभी प्रयोग में नहीं आए हैं । अथवा जो भविष्य में प्रयोग में आने वाले हैं । उन्हें अव्यपदेश्य धर्म या भविष्य का धर्म कहते हैं । जैसे- ईंट, मकान व घड़ा आदि सभी पदार्थ कारण रूप में पहले से ही मिट्टी में छुपे होते हैं । ठीक वैसे ही जैसे कि किसी बीज में पूरा वृक्ष व बाल्यकाल में जवानी छिपी होती है । उन सभी को अव्यपदेश्य धर्म कहते हैं ।

 

धर्मी :- धर्मी किसी भी पदार्थ का वह आधार भूत तत्त्व होता है जिसमें उस पदार्थ की सत्ता पाई जाती है । जैसे- मिट्टी धर्मी होता है । उसके अतिरिक्त मिट्टी के सभी रूप उसके अलग- अलग धर्म होते हैं । वह धर्मी पदार्थ की सभी अवस्थाओं में सदैव ( सदा ) विद्यमान रहता है । वह कभी भी नष्ट नहीं होता है । वही उस पदार्थ का आधार होता है ।

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