तत: पुनः शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चितस्यैकाग्रता परिणाम: ।। 12 ।।

 

शब्दार्थ :- तत:  ( उसके बाद ) पुनः  ( फिर से ) शान्त ( शान्त रहने वाली ) उदितौ ( उभरने या बढ़ने वाली ) तुल्य ( एक समान या एक जैसी ) प्रत्ययौ ( ज्ञान वाली अवस्था ) चित्तस्य ( चित्त की ) एकाग्रता ( स्थिरता का )  परिणाम: ( फल है । )

 

सूत्रार्थ :- उसके अर्थात समाधिपरिणाम के बाद फिर से शान्त रहने वाली व उभरने वाली ज्ञान की एक समान अवस्था चित्त का एकाग्रता परिणाम होता है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त के एकाग्रता परिणाम को बताता गया है ।

 

चित्त की एकाग्र अवस्था होने पर पूर्व में हुआ ज्ञान शान्त हो जाता है । उसके बाद उसी तरह का ज्ञान उदित ( उभरने ) होने लगता है । और समाहित चित्त योगी में ज्ञान का उदय समाधि के भंग होने तक होता ही रहता है ।

 

यहाँ पर भी चित्त के शान्त और उदित दो प्रकार के धर्म होते हैं । चित्त इन दोनों ही अवस्थाओं में एक समान रहता है । इसके विपरीत इससे पहले सूत्र में चित्त की दोनों ही अवस्थाओं में बहुत अन्तर था । उनमें से एक के उदय होने पर दूसरी लुप्त प्रायः हो जाती थी । अर्थात एक समय पर एक ही अवस्था प्रभावी रहती थी । लेकिन यहाँ पर दोनों क्रम समान रूप से एक साथ चलते रहते हैं । जो ज्ञान की वृत्ति शान्त होती है, वही ज्ञान वृत्ति उदित अर्थात उभरती है । इसके अतिरिक्त कोई अन्य ज्ञान वृत्ति का उदय नहीं होता है ।

 

यही चित्त का एकाग्रता परिणाम है ।

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  1. ॐ गुरुदेव *
    बहुत ही सुंदर व्याख्या प्रस्तुत की है आपने।
    आपको बहुत-बहुत आभार।

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