सर्वार्थतैकाग्रतयो: क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणाम: ।। 11 ।।

 

शब्दार्थ :- सर्वार्थता ( चित्त का चंचल होना ) एकाग्रतयो: ( चित्त का स्थिर हो जाना ) क्षय  ( नाश होना ) उदयौ  ( विकास होना ) चित्तस्य  ( चित्त का ) समाधिपरिणाम: ( समाधि का फल है । )

 

सूत्रार्थ :- चित्त की चंचल अवस्था का नाश हो जाना व एकाग्र अवस्था का विकास हो जाना चित्त की समाधि का परिणाम है ।

 

व्याख्या :- इस सूत्र में चित्त की समाधि के परिणाम का वर्णन किया गया है ।

 

सर्वार्थता का अर्थ है चित्त का चंचल हो जाना । जब हमारा चित्त अनेक विषयों की ओर आकर्षित रहता है, तो चित्त की उस अवस्था को चंचलता या सर्वार्थता कहते हैं । सर्वार्थता अथवा चंचलता चित्त का धर्म या स्वभाव है ।

 

चित्त का किसी भी एक विषय में स्थिर हो जाना व अन्य किसी भी विषय का ध्यान न करने की अवस्था को एकाग्रता कहते है । यह भी चित्त का धर्म है ।

 

जब योगी साधक अपने चित्त की चंचल ( सर्वार्थता ) की अवस्था को योगाभ्यास के द्वारा रोक देता है, तो चंचलता का नाश होता है । योग के अभ्यास से ही चंचल चित्त की चंचलता को रोका जा सकता है । जैसे ही चित्त की चंचल प्रवृत्ति रुकती है वैसे ही चित्त की स्थिर अथवा एकाग्र अवस्था का विकास होता है ।

 

चंचल अवस्था व एकाग्र अवस्था एक दूसरे के विपरीत हैं । हमारे चित्त में इन दोनों अवस्थाओं में से एक समय पर एक ही अवस्था प्रभावी रह सकती है । जैसे ही एक का प्रभाव बढ़ेगा वैसे ही दूसरी लुप्त प्रायः हो जाएगी । जैसे सर्वार्थता ( चंचलता ) के बढ़ने से एकाग्रता लुप्त हो जाती है और एकाग्रता के बढ़ने से सर्वार्थता ( चंचलता ) लुप्त हो जाती है ।

 

जब कोई व्यक्ति योग साधना का अभ्यास नहीं करता है तो उसका चित्त चंचल अवस्था वाला होता है । और जो योगी साधक योग साधना का नियमित अभ्यास करता है उसका चित्त स्थिर अवस्था वाला होता है ।

 

इस प्रकार चित्त की सर्वार्थता का नाश होने पर चित्त की एकाग्र अवस्था का उदय होता है । वही चित्त का समाधि परिणाम होता है ।

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  1. ॐ गुरुदेव *
    अति सुंदर व्याख्या प्रस्तुत की है आपने।
    बहुत-बहुत आभार आपका।

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