खेचरी मुद्रा वर्णन   कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा । भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।। 32 ।।   भावार्थ :- अपनी जिह्वा को उल्टी करके गले में स्थित तालु प्रदेश के छिद्र में प्रविष्ट ( डाल ) कराकर दृष्टि को भ्रूमध्य ( दोनों भौहों ) के बीच में स्थिर करना खेचरी मुद्रा होती है ।  

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Hatha Pradipika Ch. 3 [32-37]

खेचरी मुद्रा के लाभ   रसनामूर्ध्वगां कृत्वा क्षणार्धमपि तिष्ठति । विषैर्विमुच्यते योगी व्याधिमृत्युजरादिभि: ।। 38 ।।   भावार्थ :- जो साधक अपनी जीभ को ऊपर ले जाकर दोनों भौहों के बीच में आधे क्षण भी लगाकर रखता है तो वह अनेक प्रकार के विषों, रोगों, मृत्यु व बुढ़ापे आदि से मुक्त हो जाता है ।

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Hatha Pradipika Ch. 3 [38-43]

ऊर्ध्वजिह्व: स्थिरो भूत्वा सोमपानं करोति य: । मासार्धेन न सन्देहो मृत्युं जयति योगवित् ।। 44 ।।   भावार्थ :- जो भी योग साधक अपनी जीभ को ऊपर की ओर उठाकर स्वयं को स्थिर करते हुए ऊपर ( व्योमचक्र ) से टपकते हुए अमृत का पान ( पीता ) करता है । वह मात्र पन्द्रह दिनों

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Hatha Pradipika Ch. 3 [44-49]

चुम्बन्ती यदि लम्बिकाग्रमनिशं जिह्वारसस्यन्दिनी सक्षारा कटुकाम्लदुग्धसदृशी मध्वाज्यतुल्या तथा । व्याधीनां हरणं जरान्तकरणं शस्त्रागमोदीरणं तस्य स्यादमरत्वमष्टगुणितं सिद्धाङ्गनाकर्षणम् ।। 50 ।।   भावार्थ :- हमारी जीभ नमकीन, कड़वे, खट्टे, दूध,घी व शहद के समान रस को अनुभव करने वाली होती है । यदि साधक अपनी जीभ के अगले हिस्से ( अग्रभाग ) से तालु प्रदेश को स्पर्श

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Hatha Pradipika Ch. 3 [50-54]

उड्डीयान बन्ध   बद्धो येन सुषुम्नायां प्राण स्तूड्डीयते यत: । तस्मादुड्डीयनाख्योऽयं योगिभि: समुदाहृत: ।। 55 ।।   भावार्थ :- रुके हुए प्राण को ऊपर की ओर सुषुम्ना नाड़ी में ले जाने के कारण ही योगियों ने इस विधि को उड्डीयान बन्ध कहा है ।     उड्डीनं कुरुते यस्मादविश्रान्तं महाखग: । उड्डीयानं तदेव स्यात्तत्र बन्धोऽभिधीयते

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Hatha Pradipika Ch. 3 [55-60] – Uddiyan Bandha

मूलबन्ध विधि वर्णन   पार्षि्णभागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्गुदम् । अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबन्धोऽभिधीयते ।। 61 ।।   भावार्थ :- पैर की एड़ी से सीवनी प्रदेश अर्थात् अण्डकोश के नीचे के मूल भाग को दबाकर गुदा का आकुञ्चन करना चाहिए । अब अपान वायु को ऊपर की ओर खींचने की क्रिया को ही मूलबन्ध कहते हैं ।   अधोगतिमपानं

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Hatha Pradipika Ch. 3 [61-69] – Mula Bandha

जालन्धर बन्ध वर्णन   कण्ठ माकुञ्च्य हृदये स्थापयेच्चिबुकं दृढम् । बन्धो जालन्धराख्योऽयं जरामृत्युविनाशक: ।। 70 ।।   भावार्थ :- कण्ठ प्रदेश को सिकोड़ कर ठुड्डी को छाती पर मजबूती से लगाना जालन्धर बन्ध कहलाता है । इसका अभ्यास करने से साधक बुढ़ापा और मृत्यु से पर विजय प्राप्त कर लेता है ।   बध्नाति हि

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Hatha Pradipika Ch. 3 [70-76]