खेचरी मुद्रा वर्णन

 

कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा ।

भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।। 32 ।।

 

भावार्थ :- अपनी जिह्वा को उल्टी करके गले में स्थित तालु प्रदेश के छिद्र में प्रविष्ट ( डाल ) कराकर दृष्टि को भ्रूमध्य ( दोनों भौहों ) के बीच में स्थिर करना खेचरी मुद्रा होती है ।

 

 

छेदनचालनदोहै: कलां क्रमेण वर्धयेत्तावत् ।

सा यावद्भ्रूमध्यं स्पृशति तदा खेचरी सिद्धि: ।। 33 ।।

 

भावार्थ :- अपनी जीभ को काटना, उसको आगे- पीछे चलाना और उसका दोहन अर्थात् उसे पकड़ कर खीचना आदि क्रियाओं का अभ्यास तब तक करते रहना चाहिए जब तक कि जीभ दोनों भौहों के बीच के भाग को न छू ले । ऐसा करने से ही खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है ।

 

 

स्नुहीपत्रनिभं शस्त्रं सुतीक्ष्णं स्निग्धनिर्मलम् ।

समादाय ततस्तेन रोममात्रं समुच्छिनेत् ।। 34 ।।

तत: सैन्धवपथ्याभ्यां चूर्णिताभ्यां प्रघर्षयेत् ।

पुनः सप्तदिने प्राप्ते रोम मात्रं समुच्छिनेत् ।। 35 ।।

एवं क्रमेण षण्मासं नित्ययुक्त:समाचरेत् ।

षण्मासाद्रसनामूलशिराबन्ध: पर्णश्यति ।। 36 ।।

 

भावार्थ :- स्नुही ( थुअर ) के पत्ते समान तेज धारवाला, चिकना, कीटाणु रहित अर्थात पूर्ण स्वच्छ शस्त्र ( हथियार ) लेकर, जीभ के मूल भाग ( जीभ को उल्टा करने पर जो पतली खाल दिखाई देती है ) को रोमछिद्र के बाल की मोटाई जितने भाग को काटें । इसके बाद सेंधा नमक व हरड़ के चूर्ण का अपनी जीभ के कटे हुए भाग पर घर्षण करें और सात दिन के बाद एक बार फिर से उस हिस्से को बाल के बराबर काटें ।

ऊपर वर्णित विधि का निरन्तर छह महीने तक अभ्यास करने से जीभ के मूल में स्थित बन्ध ( जिस भाग को प्रति सप्ताह काटा गया है ) पूरी तरह से हट जाता है । जिससे जीभ के संचालन में सरलता हो जाती है ।

 

 

व्योमचक्र

 

कलां पराङ्मुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत् ।

सा भवेत् खेचरी मुद्रा व्योमचक्रं तदुच्यते ।। 37 ।।

 

भावार्थ :- अपनी जीभ को उल्टी करके तालु प्रदेश के मूल में स्थित छिद्र ( जहाँ पर तीनों नाडियों का संगम होता है ) में लगाने से खेचरी मुद्रा कहलाती है । तालु प्रदेश के मूल भाग में स्थित वह छिद्र व्योमचक्र कहलाता है ।

 

विशेष :- तालु में स्थित छिद्र को व्योमचक्र कहते हैं । यह परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है ।

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