मूलबन्ध विधि वर्णन

 

पार्षि्णभागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्गुदम् ।

अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबन्धोऽभिधीयते ।। 61 ।।

 

भावार्थ :- पैर की एड़ी से सीवनी प्रदेश अर्थात् अण्डकोश के नीचे के मूल भाग को दबाकर गुदा का आकुञ्चन करना चाहिए । अब अपान वायु को ऊपर की ओर खींचने की क्रिया को ही मूलबन्ध कहते हैं ।

 

अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात् ।

आकुञ्चनेन तं प्राहुर्मूलबन्धं हि योगिन: ।। 62 ।।

 

भावार्थ :- यह अपान वायु पंच प्राण का ही एक अंग है जिसकी गति सामान्य रूप से नीचे ( गुदा ) की ओर रहती है । उस अपान वायु को बलपूर्वक ऊपर की ओर खींचकर वहीं पर रोकने को योगियों ने मूलबन्ध कहा है ।

 

गुदं पाष्ण् र्या तु सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद् बलात् ।

वारं वारं यथा चोर्ध्वं समायाति समीरण: ।। 63 ।।

 

भावार्थ :- एड़ी से गुदा को अच्छी तरह से दबाकर अपान वायु को बार- बार बलपूर्वक ऊपर की ओर खींचने से अपान वायु ऊपर की ओर आ जाती है ।

 

प्राणापानौ नादबिन्दू मूलबन्धेन चैकताम् ।

गत्वा योगस्य संसिद्धिं यच्छतो नात्र संशय: ।। 64 ।।

 

भावार्थ :- मूलबन्ध के सिद्ध होने पर प्राण वायु व अपान वायु और अनाहत नाद व वीर्य इन सभी में एकरूपता आ जाती है अर्थात् इनका आपस में मिलन हो जाता है । जिससे साधक का योग सिद्ध हो जाता है । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है ।

 

अपानप्राणयोरैक्यं क्षयो मूत्रपुरीषयो: ।

युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात् ।। 65 ।।

 

भावार्थ :- नियमित रूप से मूलबन्ध का अभ्यास करने से प्राण वायु व अपान वायु में एकरूपता आ जाती है । जिसके फलस्वरूप साधक के शरीर में मल- मूत्र की मात्रा में कमी आ जाती है और वृद्ध व्यक्ति भी युवा हो जाता है ।

 

अपाने ऊर्ध्वगे जाते प्रयाते वह्निमण्डलम् ।

तदाऽनलशिखा दीर्घा जायते वायुनाऽऽहता ।। 66 ।।

 

भावार्थ :- जब अपान वायु को मूलबन्ध के द्वारा ऊपर की ओर खींचा जाता है तो वह ऊपर की ओर बढ़ने लगती है । जैसे ही वह अपान वायु नीचे से ऊपर की ओर बढ़ती हुई जठराग्नि तक पहुँचती है तो उस वायु से प्रेरित होकर साधक की जठराग्नि और भी ज्यादा प्रदीप्त ( मजबूत ) हो जाती है ।

 

ततो यातो वह्नयपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम् ।

तेनात्यन्तप्रदीप्तस्तु ज्वलनो देहजस्तथा ।। 67 ।।

 

भावार्थ :- तब जठराग्नि व अपान वायु की अग्नि बढ़ने से वह शरीर में स्थित प्राण को भी उष्ण ( गर्म ) कर देते हैं । जिससे शरीर में भी अग्नि अत्यंत तीव्र रूप से बढ़ती है ।

 

 तेन कुण्डलिनी सुप्ता सन्तप्ता सम्प्रबुध्यते ।

दण्डाहता भुजङ्गीव नि:श्वस्य ऋजुतां व्रजेत् ।। 68 ।।

 

भावार्थ :- इस प्रकार शरीर में अग्नि के बढ़ने से शरीर में सोई हुई कुण्डलिनी भी जाग्रत अवस्था में आ जाती है । उसके बाद वह उसी प्रकार सीधी हो जाती है जिस प्रकार डण्डे से मार खाने पर सर्प सीधा हो जाता है ।

 

 बिलं प्रविष्टेव ततो ब्रह्ननाड्यन्तरं व्रजेत् ।

तस्मान्नित्यं मूलबन्ध: कर्तव्यो योगिभि: सदा ।। 69 ।।

 

भावार्थ :- अब जब कुण्डलिनी जाग्रत अवस्था में आ गई है तब वह ब्रह्मनाड़ी में ठीक वैसे ही प्रवेश कर जाती है जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है । अतः योगी साधक को नियमित रूप से मूलबन्ध का अभ्यास करना चाहिए ।

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