चुम्बन्ती यदि लम्बिकाग्रमनिशं जिह्वारसस्यन्दिनी
सक्षारा कटुकाम्लदुग्धसदृशी मध्वाज्यतुल्या तथा ।
व्याधीनां हरणं जरान्तकरणं शस्त्रागमोदीरणं
तस्य स्यादमरत्वमष्टगुणितं सिद्धाङ्गनाकर्षणम् ।। 50 ।।
भावार्थ :- हमारी जीभ नमकीन, कड़वे, खट्टे, दूध,घी व शहद के समान रस को अनुभव करने वाली होती है । यदि साधक अपनी जीभ के अगले हिस्से ( अग्रभाग ) से तालु प्रदेश को स्पर्श करवाकर वहाँ से बहने वाले अमृत रस का पान ( पीता ) करता रहता है तो उसके सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । बुढापा दूर हो जाता है तथा उसे अनेक शास्त्रों का ज्ञान अपने आप ही प्राप्त हो जाता है । इससे साधक की आयु आठ गुणा तक बढ़ती है और सभी सिद्धजनों की स्त्रियाँ उसकी तरफ आकर्षित होती हैं ।
ऊर्ध्व: षोडशपत्रमध्यगलितं प्राणादवाप्तं हठात्
उर्ध्वास्यो रसनां नियम्य विवरे शक्तिं परां चिन्तयन् ।
उत्कल्लोलकलाजलं च विमलं धारामयं य: पिबेत्
निर्व्याधि: स मृणालकोमलवपुर्योगी चिरं जीवति ।। 51 ।।
भावार्थ :- जो भी योग साधक अपनी जीभ को तालु प्रदेश के मूल में ऊपर से नीचे तक स्थापित करके उस परम शक्ति का ध्यान करते हुए उस सोलह पंखुड़ियों वाले पद्म से निकलने वाले चन्द्र रस की निर्मल व गतिशील धारा को पीता है । वह साधक रोग मुक्त व कमल की नाल की तरह अत्यंत कोमल होकर बहुत लम्बे समय तक जीवित रहता है ।
यत्प्रालेयं प्रहितसुषिरं मेरु मूर्धान्तरस्थम्
तस्मिंस्तत्त्वं प्रवदति सुधीस्तन्मुखं निम्नगानाम् ।
चन्द्रात् सार: स्त्रवति वपुषस्तेन मृत्युर्नराणाम्
तद् बध्नीयात् सुकरणमथो नान्यथा कार्यसिद्धि: ।। 52 ।।
भावार्थ :- मेरुदण्ड व मस्तिष्क के बीच में जो छिद्र है । उसमें ही इस पूरे जीवन का सार बहता है । यही वह स्थान है जहाँ पर इडा, पिङ्गला व सुषुम्ना नाड़ियों का मिलन होता है । इसी स्थान से चन्द्र से प्रवाहित होने वाला रस टपकता है । इस अमृत रस के नष्ट होने से ही मनुष्य की मृत्यु होती है । उत्तम साधकों को इस अमृत रस को विधिपूर्वक शरीर के अन्दर रोकना चाहिए । इसको सुरक्षित किये बिना साधक को किसी भी कार्य में सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती ।
सुषिरं ज्ञान जनकं पञ्चस्त्रोत: समन्वितम् ।
तिष्ठते खेचरी मुद्रा तस्मिन् शून्ये निरञ्जने ।। 53 ।।
भावार्थ :- सभी दोषों से रहित सुषुम्ना नाड़ी में चेतना के पाँच स्त्रोत हैं । जो शरीर में उर्जा को निरन्तर प्रवाहित करने का काम करते हैं । उसमें ही खेचरी विद्यमान रहती है या उसी में खेचरी मुद्रा पूर्ण होती है ।
एकं सृष्टिमयं बीजमेका मुद्रा च खेचरी ।
एको देवो निरालम्ब एकावस्था मनोन्मनी ।। 54 ।।
भावार्थ :- इस श्लोक में चार मुख्य पदार्थों का वर्णन किया गया है । जिनमें एक इस सृष्टि का मूल अर्थात प्रकृति है । दूसरा मुद्राओं में एक ही मुद्रा अर्थात् खेचरी मुद्रा है । तीसरा सबको आश्रय देने वाला अर्थात् एक परमेश्वर व एकमात्र अवस्था अर्थात् एक ही मनोन्मनी अवस्था है । मनोन्मनी अवस्था को ही समाधि कहा जाता है ।
धन्यवाद।