वज्रोली मुद्रा वर्णन
स्वेच्छया वर्तमानोऽपि योगोक्तैर्नियमैर्विना ।
वज्रोलीं यो विजानाति स योगी सिद्धिभाजनम् ।। 83 ।।
भावार्थ :- जो भी साधक वज्रोली क्रिया को करना जानता है । वह बिना योग साधना के नियमों का पालन किए भी अपनी मनमर्जी से जीवन को जीते हुए योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है ।
तत्र वस्तुद्वयं वक्ष्ये दुर्लभं यस्य कस्यचित् ।
क्षीरं चैकं द्वितीयं तु नाडी च वश्वर्तिनी ।। 84 ।।
भावार्थ :- इस वज्रोली मुद्रा की साधना में मुख्य रूप से दो वस्तुओं को दुर्लभ ( जो कठिनता से प्राप्त होती हैं ) माना गया है । जिनमें पहला है दूध और दूसरी है पूरी तरह से वश में रहने वाली स्त्री । ऊपर वर्णित दोनों वस्तुएं जिसके पास हैं । वह वज्रोली मुद्रा की साधना कर सकता है ।
मेहनेन शनै: सम्यगूर्ध्वाकुञ्चनमभ्यसेत् ।
पुरुषोप्यथवा नारी वज्रोलीसिद्धिमाप्नुयात् ।। 85 ।।
भावार्थ :- कोई भी स्त्री हो या पुरुष जो भी अपने योनिमण्डल अर्थात् अपने – अपने मूत्र मार्गों से योनिस्थान का आकुञ्चन ( मूलबन्ध वाली अवस्था ) करने का अभ्यास करता है । वह वज्रोली मुद्रा को सिद्ध कर लेता है ।
यत्नतः शस्तनालेन फूत्कारं वज्रकन्दरे ।
शनै: शनै: प्रकुर्वीत वायुसञ्चारकारणात् ।। 86 ।।
भावार्थ :- धीरे- धीरे प्रयास करते हुए साधक को अपने मूत्र मार्ग में वायु का संचार करने के लिए चिकनी नली के माध्यम से मुहँ द्वारा वायु का प्रवेश करवाने का प्रयास करना चाहिए । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार भोजन पकाते हुए मन्द पड़ी हुई अग्नि को पुनः प्रज्वलित करने के लिए हम फूंक मारते हैं ।
विशेष :- एक पतली व चिकनी नली लेकर उसे धीरे- धीरे अपने मूत्र मार्ग में डाले । इसके बाद अपने मुहँ द्वारा उस नली के दूसरे छोर ( ओर ) से वायु को अन्दर की तरफ भेजें । जिससे वायु का संचार आसानी से हो जाए ।
Thank you sir
ॐ गुरुदेव*
आपका हृदय से आभार।
धन्यवाद।