जालन्धर बन्ध वर्णन
कण्ठ माकुञ्च्य हृदये स्थापयेच्चिबुकं दृढम् ।
बन्धो जालन्धराख्योऽयं जरामृत्युविनाशक: ।। 70 ।।
भावार्थ :- कण्ठ प्रदेश को सिकोड़ कर ठुड्डी को छाती पर मजबूती से लगाना जालन्धर बन्ध कहलाता है । इसका अभ्यास करने से साधक बुढ़ापा और मृत्यु से पर विजय प्राप्त कर लेता है ।
बध्नाति हि शिराजालमधोगामिनभोजलम् ।
ततो जालन्धरो बन्ध: कण्ठदुःखौघनाशन: ।। 71 ।।
भावार्थ :- जालन्धर बन्ध में कण्ठ के सिकुड़ने से वहाँ स्थित सभी नाड़ियों का भी संकोच हो जाता है । जिससे आकाश जल अर्थात् कण्ठ से निकलने वाले अमृत का भी संकोच हो जाता है । इस प्रकार वह अमृत नीचे नहीं टपकता बल्कि वहीं पर रुक जाता है । इस जालन्धर बन्ध के अभ्यास से कण्ठ अर्थात् गले के सभी रोग समाप्त हो जाते हैं ।
जालन्धरे कृते बन्धे कण्ठसंकोचलक्षणे ।
न पीयूषं पतत्यग्नौ न च वायु: प्रकुप्यति ।। 72 ।।
भावार्थ :- कण्ठ का संकोच अर्थात् सिकुड़ने से जब जालन्धर बन्ध लगता है तो वह कण्ठ से बहने वाला अमृत जठराग्नि तक नहीं पहुँच पाता । जिससे साधक के अन्दर वात का प्रकोप अर्थात् उसका प्रभाव भी नहीं बढ़ता है । इससे वात से सम्बंधित रोग होने की सम्भावना भी कम हो जाती है ।
कण्ठसंकोचनेनैव द्वे नाड्यौ स्तम्भयेद् दृढम् ।
मध्यचक्रमिदं ज्ञेयं षोडशाधारबन्धनम् ।। 73 ।।
भावार्थ :- कण्ठ के संकोचन अर्थात् जालन्धर बन्ध से इडा व पिङ्गला दोनों ही नाड़ियों को मजबूती से रोका जाता है । इसे मध्य चक्र कहा जाता है । वहीं इस स्थान को विशुद्धि चक्र भी कहते हैं । इसका अभ्यास करने से शरीर के सभी सोलह (16) आधारों पर साधक का नियंत्रण अथवा स्थिरता प्राप्त होती है ।
विशेष :- यह सोलह आधार निम्न हैं –
- पाँव का अंगुठा
- टखना
- घुटना
- जंघा
- सीवनी या योनि प्रदेश
- लिंग
- नाभि
- हृदय
- गर्दन
- कण्ठ प्रदेश
- जीभ
- नासिका
- भ्रूमध्य या भौहें
- ललाट या माथा
- मूर्धा या माथे का ऊपरी हिस्सा
- ब्रह्मरन्ध्र अर्थात् सिर का सबसे ऊपरी भाग ।
मूलस्थानं समाकुञ्च्य उड्डियानं तु कारयेत् ।
इडां च पिङ्गलां बद्ध्वा वाहयेत् पश्चिमे पथि ।। 74 ।।
भावार्थ :- गुदा प्रदेश का आकुंचन अर्थात् गुदा को अन्दर की ओर खींच कर ( मूलबन्ध लगाकर ) उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए । इडा व पिङ्गला नाड़ियों को रोककर अर्थात् जालन्धर बन्ध लगाकर प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित करना चाहिए ।
अनेनैव विधानेन प्रयाति पवनो लयम् ।
ततो न जायते मृत्युर्जरारोगादिकं तथा ।। 75 ।।
भावार्थ :- इस विधि का उपयोग करने से साधक की प्राण शक्ति ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करती है । जिससे अभ्यास करने वाला साधक बुढ़ापे व मृत्यु आदि से सदैव सुरक्षित रहता है ।
बन्धत्रयमिदं श्रेष्ठं महासिद्धैश्च सेवितम् ।
सर्वेषां हठतन्त्राणां साधनं योगिनो विदुः ।। 76 ।।
भावार्थ :- महान व सिद्ध योगियों द्वारा प्रयोग किए गए उपर्युक्त तीनों बन्धों ( मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध, जालन्धर बन्ध ) को श्रेष्ठ बताया गया है । इनके सिद्ध हो जाने पर साधक की हठयोग की अन्य सभी क्रियाएँ भी सफल हो जाती हैं । एक प्रकार से इन तीनों बन्धों को हठयोग की अन्य क्रियाओं को सिद्ध करने के लिए आधार माना गया है ।
Thanks again sir
Omji guru g bahut kuch sikhne Ko Mila dhanyavad g
ॐ गुरुदेव*
आपका परम आभार ।
sir!
Kya aap se ham in kriyao ko sikh sakate hai
yadi ha to kaha aur kaise
धन्यवाद।