महाबन्ध वर्णन

 

पाषि्र्ण वामस्य पादस्य योनिस्थाने नियोजयेत् ।

वामोरूपरि संस्थाप्य दक्षिणं चरणं तथा ।। 19 ।।

पूरयित्वा ततो वायुं हृदये चिबुकं दृढम् ।

निष्पीड्य योनिमाकुंच्य मनोमध्ये नियोजयेत् ।। 20 ।।

 

भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी को सीवनी प्रदेश ( योनि स्थान ) पर अच्छे से टिका दें । दायें पैर को बायीं जंघा पर रखें । अब प्राणवायु को शरीर के अन्दर भरकर ठुड्ढी को मजबूती के साथ छाती पर लगाएं । ( जालन्धर बन्ध लगाएं ) साथ ही योनिस्थान का आकुंचन करें अर्थात मूलबन्ध का प्रयोग करते हुए मन को सुषुम्ना नाड़ी में लगाना चाहिए ।

 

धारयित्वा यथाशक्ति रेचयेदनिलं शनै: ।

सव्याङ्गे तु समभ्यस्य दक्षाङ्गे पुनरभ्यसेत् ।। 21 ।।

 

भावार्थ :- जालन्धर बन्ध को हटाते हुए शरीर के अन्दर रोकी हुई प्राणवायु को धीरे- धीरे बाहर निकाले । इस प्रकार बायीं तरफ से इसका अभ्यास करने के बाद पुनः दायीं ओर से भी इसका उसी प्रकार से अभ्यास करें ।

 

जालन्धर बन्ध के विषय में सुझाव

 

मतमत्र तु केषाञ्चित् कण्ठबन्धं विवर्जयेत् ।

राजदन्तस्थ जिह्वाया बन्ध: शस्तो भवेदिति ।। 22 ।।

 

भावार्थ :- यहाँ पर कुछ विद्वानों का यह मानना है कि महाबन्ध का अभ्यास करते हुए इसमें जालन्धर बन्ध को न लगाकर उसकी जगह पर जिह्वा ( जीभ ) को मुख्य दाँतो अर्थात आगे वाले दाँतो के साथ लगाना ज्यादा उचित है ।

 

महाबन्ध से महासिद्धि की प्राप्ति

 

अयन्तु सर्वनाडीनामूर्ध्वं गतिनिरोधक: ।

अयं खलु महाबन्धो महासिद्धि प्रदायक: ।। 23 ।।

 

भावार्थ :- यह महाबन्ध सभी नाड़ियों की ऊपर की ओर प्रवाहित होने वाली गति को रोकता है । जिससे निश्चित रूप से यह महाबन्ध साधक को महान सिद्धियाँ प्रदान करवाने वाला होता है ।

 

महाबन्ध का फल

 

कालपाशमहाबन्धविमोचनविचक्षण: ।

त्रिवेणीसङ्गमं धत्ते केदारं प्रापयेन्मन: ।। 24 ।।

 

भावार्थ :- यह महाबन्ध साधक को मृत्यु रूपी बन्धन से मुक्ति प्रदान करवाने वाला है । साथ ही यह इडा, पिङ्गला व सुषुम्ना नाड़ियों का संगम करवाता है और मन को शिव स्थान अर्थात आज्ञा चक्र में स्थिर करता है ।

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