विद्वानों द्वारा महामुद्रा की प्रशंसा

 

महाक्लेशादयो दोषा: क्षीयन्ते मरणादय: ।

महामुद्रां च तेनैव वदन्ति विबुधोत्तमा: ।। 14 ।।

 

भावार्थ :- महामुद्रा करने से महक्लेश रूपी सभी दोष तथा मृत्यु रूपी दुःख भी नष्ट हो जाते हैं । इसीलिए विद्वानों में भी जो श्रेष्ठ हैं उन्होंने इस मुद्रा को महामुद्रा कहा है ।

 

चन्द्राङ्गे तु समभ्यस्य सूर्याङ्गे पुनरभ्यसेत् ।

यावतुल्या भवेत् संख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत् ।। 15 ।।

 

भावार्थ :- बायीं ओर से ( बायें पैर से )  महामुद्रा का अभ्यास करने के बाद दोबारा इसका दायीं ओर से ( दायें पैर से ) अभ्यास करें । जब दोनों पैरों से इसका एक समान अभ्यास हो जाए तब महामुद्रा के अभ्यास को समाप्त कर दें ।

 

महामुद्रा के लाभ

 

न हि पथ्यमपथ्यं वा रसा: सर्वेऽपि नीरसा: ।

अपि भुक्तं विषं घोरं पीयूषमिव जीर्यति ।। 16 ।।

 

भावार्थ :- महामुद्रा का अभ्यास करने से साधक की जठराग्नि इतनी प्रबल हो जाती है कि उसके लिए किसी भी प्रकार का भोजन पचने अथवा न पचने वाला नहीं रहता । वह सभी प्रकार के आहार को आसानी से पचा लेता है । बिना रस वाला आहार भी उसके लिए रसयुक्त हो जाता है । इसके अलावा वह भयानक जहर को भी इस प्रकार पचा लेता है जैसे कि वह अमृत हो ।

 

 

क्षयकुष्ठगुदावर्तगुल्माजीर्ण पुरोगमा: ।

तस्य दोषा: क्षयं यान्ति महामुद्रां तु योऽभ्यसेत् ।। 17 ।।

 

भावार्थ :- महामुद्रा के अभ्यास से साधक के क्षय ( तपेदिक या टीबी ) कुष्ठ ( चर्म रोग ) कब्ज, गुल्म ( वायु गोला ) अजीर्ण ( अपच ) व इनसे सम्बंधित अन्य कई प्रकार के रोग भी समाप्त हो जाते हैं ।

 

महामुद्रा की गोपनीयता

 

कथितेयं महामुद्रा महासिद्धिकरी नृणाम् ।

गोपनीया प्रयत्नेन न देया यस्य कस्यचित् ।। 18 ।।

 

भावार्थ :- मनुष्यों को असंख्य सिद्धियाँ प्रदान कराने वाली इस महामुद्रा को पूरे प्रयास के साथ गुप्त रखना चाहिए । इसका वर्णन किसी को भी नहीं करना चाहिए अर्थात चाहे जिसको भी इसका वर्णन नहीं करना चाहिए । इसे गुप्त ही रखना चाहिए ।

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