कुण्डलिनी को जगाने की विधि

 

अवस्थिता चैव फणावती सा प्रातश्च सायं प्रहरार्धमात्रम् ।

प्रपूर्ये सूर्यात् परिधानयुक्त्या प्रगृह्य नित्यं परिचालनीया ।। 112 ।।

 

भावार्थ :- मूलाधार में स्थित उस सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति को आधे पहर ( डेढ़ घण्टे ) तक दायीं नासिका से पूरक ( श्वास ग्रहण करते हुए ) करते हुए विधिपूर्वक जगाना चाहिए ।

 

ऊर्ध्वं वितस्तिमात्रं तु विस्तारं चतुरङ्गुलम् ।

मृदुलं धवलं प्रोक्तं वेष्टिताम्बरलक्षणम् ।। 113 ।।

 

भावार्थ :- कन्द के लक्षण बताते हुए कहा है कि मूल स्थान से एक बित्ता अर्थात् हाथ को पूरा खोलने पर अंगूठे से लेकर सबसे छोटी अंगुली तक की जितनी दूरी होती है उसे एक बित्ता कहते हैं । यह लगभग नौ ( 9 ) इंच का होता है । चौड़ाई में चार अंगुल चौड़ा अर्थात् लगभग तीन ( 3 ) इंच चौड़ा होता है । साथ ही वह कोमल, स्वच्छ व सफेद वस्त्र में लिपटे हुए के समान होता है ।

अतः मूल स्थान से एक हाथ ऊपर, चार अंगुल चौड़े, स्वच्छ, कोमल व सफेद वस्त्र में लिपटे हुए के समान कन्द का लक्षण बताया गया है ।

 

 

सति वज्रासने पादौ कराभ्यां धारयेद् दृढम् ।

गुल्फदेशसमीपे च कन्दं तत्र प्रपीडयेत् ।। 114 ।।

 

भावार्थ :- वज्रासन में बैठकर दोनों हाथों से अपने दोनों पैरों के टखनों को मजबूती के साथ पकड़े और एड़ियों से कन्द प्रदेश को जोर ( पूरे दबाव ) से दबाएं ।

 

वज्रासने स्थितो योगी चालयित्वा च कुण्डलीम् ।

कुर्यादनन्तरं भस्त्रां कुण्डलीमाशु बोधयेत् ।। 115 ।।

 

भावार्थ :- इस प्रकार वज्रासन में स्थित होकर ( बैठकर ) साधक कुण्डलिनी को चलाए । इसके बाद भस्त्रिका प्राणायाम करे । ऐसा करने से कुण्डलिनी शीघ्र ( जल्दी ) जागृत हो जाती है ।

  

भानोराकुञ्चनं कुर्यात् कुण्डलीं चालयेत्तत: ।

मृत्युवक्त्रगतस्यापि तस्य मृत्युभयं कुत: ।। 116 ।।

 

भावार्थ :- एक बार फिर से पिङ्गला नाड़ी अर्थात् सूर्य स्वर ( दायीं नासिका ) से पूरक ( श्वास लेते हुए ) करते हुए कुण्डलिनी को चलाएं । ऐसा करने पर मृत्यु के निकट होने पर भी साधक को मृत्यु का भय नहीं रहता ।

 

 

मुहूर्तद्वयपर्यन्तं निर्भयं चालनादसौ ।

ऊर्ध्वमाकृष्यते किञ्चित् सुषुम्नायां समुद्गता ।। 117 ।।

 

भावार्थ :- साधक को भय से रहित होकर दो मुहूर्त अर्थात् एक घण्टा छत्तीस मिनट तक कुण्डलिनी का संचालन करना चाहिए । इससे वह प्राण शक्ति कुछ ऊपर की ओर उठकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाती है ।

 

विशेष :-  एक मुहूर्त दो घड़ी का होता है तो दो मुहूर्त का अर्थ है चार घड़ी । इनमें एक घड़ी चौबीस ( 24 ) मिनट की होती है । अतः कुल चार घड़ी हुई और चार घड़ी का कुल समय ( 4×24= 96 मिनट ) एक घण्टा छत्तीस मिनट हुआ ।

 

 

तेन कुण्डलिनी तस्या: सुषुम्नायां मुखं ध्रुवम् ।

जहाति तस्मात् प्राणोऽयं सुषुम्नां व्रजति स्वत: ।। 118 ।।

 

भावार्थ :- इसके परिणामा स्वरूप वह कुण्डलिनी शक्ति जो सुषुम्ना नाड़ी के मुख को ढकें रखती है । वह सुषुम्ना नाड़ी के मुहँ को निश्चित रूप से छोड़ देती है । जिससे साधक के प्राण का प्रवाह बिना किसी रुकावट के सुषुम्ना नाड़ी में स्वयं ही प्रवेश कर जाता है ।

Related Posts

December 10, 2018

राजयोग की उपयोगिता    राजयोगं विना पृथ्वी राजयोगं विना निशा । राजयोगं विना मुद्रा ...

Read More

December 10, 2018

शक्ति चालन मुद्रा के लाभ   तस्मात् सञ्चालयेन्नित्यं सुख सुप्ता मरुन्धतीम् । तस्या: सञ्चालनेनैव ...

Read More

December 8, 2018

कुण्डलिनी को जगाने की विधि   अवस्थिता चैव फणावती सा प्रातश्च सायं प्रहरार्धमात्रम् । ...

Read More

December 8, 2018

शक्तिचालन मुद्रा वर्णन   कुटिलाङ्गी कुण्डलिनी भुजङ्गी शक्तिरीश्वरी । कुण्डल्यरुन्धती चैते शब्दा: पर्यायवाचका: ।। ...

Read More
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked

{"email":"Email address invalid","url":"Website address invalid","required":"Required field missing"}